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जैन न्याय
प्रतिवादियों की ओरसे बराबर यह प्रश्न होता था कि जैन अगर अनुमान आदि दर्शनान्तरमें प्रसिद्ध प्रमाणोंको परोक्ष प्रमाण मानते हैं तो उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि वे परोक्ष प्रमाणके कितने भेद मानते हैं और उनका सुनिश्चित लक्षण क्या है ?
अकलंकदेवने बहुत ही सुन्दर रीतिसे प्रमाणविषयक गुत्थियोंको सर्वदाके लिए सुलझा दिया। उन्होंने अपनी प्रमाण पद्धतिका आधार तो वही रखा जो तत्त्वार्थसूत्रकारने अपनाया था। तत्त्वार्थसूत्रके 'तत्प्रमाणे सूत्रको आदर्श मानकर उन्होंने भी प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही भेद किये, किन्तु प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और मुख्य प्रत्यक्ष ये दो भेद किये, तथा इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होनेवाले मतिज्ञानको परोक्षको परिधिमें से निकालकर तथा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम देकर प्रत्यक्षकी परिधिमें सम्मिलित कर दिया। इस परिवर्तनसे न तो प्राचीन जैन परम्पराको ही कोई क्षति पहुँची और विपक्षी दार्शनिकोंको भी नुक्ताचीनी करनेका स्थान नहीं रहा; क्योंकि प्राचीन जैन परम्परा इन्द्रियोंसे होनेवाले ज्ञानको परोक्ष कहती थी और इतर दार्शनिक उसे प्रत्यक्ष कहते थे । किन्तु उसे सांव्यवहारिक अर्थात् लौकिक प्रत्यक्ष नाम दे देनेसे न तो जैन परम्पराको हो क्षति थी और न विपक्षी दार्शनिक ही कुछ कह सकते थे, क्योंकि नामके कारण ही विवाद था, प्रत्यक्ष नाम दे देनेसे वह विवाद जाता रहा।
अब प्रश्न रहा-स्मृति आदि प्रमाणोंका। इन्हें अकलंकदेवने सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें भी अन्तर्भूत किया और परोक्ष श्रुतज्ञानमें भी अन्तर्भूत किया। जबतक इनमें शब्दका संसर्ग न हो तबतक तो इन्हें सन्यवहारिक प्रत्यक्ष माना। इसके लिए उन्होंने सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके दो भेद किये-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । इन्द्रिय प्रत्यक्षमें तो मतिको स्थान मिला और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षमें स्मृति आदिको, क्योंकि उनमें मनका ही प्रधान व्यापार होता है । परन्तु यदि ये स्मति आदि शब्द संसर्गको लिये हुए हों तो उनका अन्तर्भाव परोक्ष श्रतज्ञानमें किया गया । ( श्रुतज्ञानकी चर्चामें इसपर विशेष प्रकाश डाला जायेगा)। अकलंकने जो स्मृति आदि प्रमाणोंको अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष बतलाया, उसके मूलमें उनको केवल एक ही दृष्टि थी और वह थी सूत्रकारका उन्हें मतिसे अनर्थान्तर
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१. 'केवलं लोकबुद्धय व मतेर्लक्षणसंग्रहः।-न्यायवि०, ३-४७५ । २. 'ज्ञानमायं मतिः संशा चिन्ता चाभिनिबोधनम् । प्राङ्नाम योजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् ॥ १० ॥'-लघीय० ।
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