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प्रमाणके भेद
आद्ये परोक्षम् ।।
प्रत्यक्षमन्यत् ।१२।" -अर्थात् मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पांच ज्ञान ही प्रमाण हैं । इनमें-से आदिके दो ज्ञान परोक्ष हैं और शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। इस तरह ज्ञानसम्बन्धी प्राचीन जैन परम्पराको निबद्ध करके सूत्रकारने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध नामक ज्ञानोंको अनर्थान्तर बतलाया । यथा
"मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽमिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥१३॥" और इस तरह उन्होंने अपने समयमें प्रचलित स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान प्रमाणोंका अन्तर्भाव मतिज्ञानमें करके जैन क्षेत्रमें दार्शनिक प्रमाण पद्धतिको स्थान दिया। इस प्रकार उस समय तक प्रमाणके भेदोंकी व्यवस्या इस प्रकार थी
प्रमाण
परोक्ष
प्रत्यक्ष
मनःपर्यय
केवल
मति श्रुत
अवधि ( स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध )
अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा
वह समय भारतवर्षके दार्शनिक अभ्युत्थानका समय था। दार्शनिक क्षितिजपर नये-नये सितारे एकके बाद एक उगते थे और अपनी प्रभासे दर्शनशास्त्रका विकास करके अस्त हो जाते थे। समन्तभद्र, सिद्धसेन, वसुबन्धु, दिग्नाग, धर्मकीति, शबर, कुमारिल, वात्स्यायन, प्रशस्तपाद आदि प्रमुख दार्शनिकोंने भारतको अपने जन्मसे पवित्र किया। उनके पारस्परिक दार्शनिक संघर्षके फलस्वरूप सभी दर्शनोंका विकास हुआ और नयी-नयो गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न हुआ। जैन परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रकारने तार्किक परम्पराको मतिज्ञानमें अन्तर्भूत करके उत्तराधिकारियों का मार्गदर्शन तो किया, किन्तु उससे प्रमाण पद्धतिकी गुत्थियां नहीं सुलझ सकीं। सबसे सबल गुत्थो थी इन्द्रि यजन्य ज्ञानको परोक्ष मानना। किसी भी दार्शनिकने इन्द्रियजन्य ज्ञानको परोक्ष नहीं माना, सब उसे प्रत्यक्ष ही मानते हैं । दूसरी गुत्थी थी परोक्षके भेदोंको लेकर । जैन तार्किकोंके सामने दूसरे
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