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प्रमाण
अभाव होनेसे ज्ञानका ही अभाव हुआ कहलाया; क्योंकि आप ज्ञानत्वको ही प्रामाण्य मानते हैं । दूसरे पक्षमें यह बतलाना चाहिए कि यदि अप्रामाण्य वस्तुभूत धर्म है तो वह क्या है ? यदि संशय और विपर्ययका नाम अप्रामाण्य है तो ये दोनों तो ज्ञानात्मक हैं और ज्ञानत्वको ही आप प्रामाण्य मानते हैं । अतः ये दोनों तो अप्रामाण्यरूप हो नहीं सकते।
तथा जब आपके मतानुसार सभी ज्ञान आमतौरसे प्रमाण ही होते हैं तो उनमें संशय और विपरीतपना कैसे आता है ? यदि वह ज्ञान सामान्यको उत्पन्न करनेवाले कारणोंके सिवा अन्य कारणोंसे आता है, तो उसी तरह यथार्थ वस्तुका निश्चय स्वरूप प्रामाण्य भी ज्ञान सामान्यको उत्पन्न करनेवाले कारणोंके सिवा अतिरिक्त कारणोंसे ही मानना चाहिए ।
सारांश यह है कि ज्ञानपना एक सामान्य धर्म है जो प्रमाण ज्ञानमें भी रहता है और अप्रमाण ज्ञानमें भी रहता है। किन्तु प्रामाण्य और अप्रामाण्य ये विशेष धर्म हैं जो ज्ञान मात्रमें नहीं रहते । जब कोई ज्ञान उत्पन्न होता है तो उसके प्रामाण्यका और अप्रामाण्यका निश्चय किया जाता है कि यह ज्ञान सच्चा है अथवा झूठा । प्रतिदिनकी वस्तुओंके ज्ञानको सत्यता और असत्यताका निर्णय तो स्वयं ही तत्काल हो जाता है, किन्तु अपरिचित जगहमें जो वस्तुज्ञान होता है, इसके प्रामाण्य और अप्रामाण्यका निश्चय अन्य कारणोंसे करना पड़ता है। जब ज्ञानके प्रामाण्यका निश्चय हो जाता है तो आवश्यकतानुसार उसके विषयमें प्रवृत्ति की जाती है। यह तो हुआ प्रामाण्यको ज्ञप्ति (निश्चय ) के विषयमें जैन दर्शनका अभिमत । अब प्रश्न यह होता है कि ज्ञान जो सच्चा या झूठा होता है सो स्वयं ही होता है या अन्य कारणोंसे होता है । जैन दर्शनका कहना है कि जैसे ज्ञानके उत्पादक कारणोंमें दोष होनेसे अप्रमाण ज्ञान उत्पन्न होता है, वैसे ही ज्ञानके उत्पादक कारणों में गुण होनेसे प्रमाण ज्ञान उत्पन्न होता है। अतः जैसे दोषोंसे उत्पन्न होनेके कारण अप्रामाण्यकी उत्पत्ति परतः होती है वैसे ही गणोंसे उत्पन्न होने के कारण प्रामाण्यकी उत्पत्ति भी परतः ही होती है। इस बातको श्वेताम्बराचार्य देवसूरिने अपने प्रमाणनयतत्त्वालोक नामक सूत्र ग्रन्थमें स्पष्ट रूपसे निबद्ध किया है । यथा
"तदुभयमुत्पत्तौ परत एव ज्ञप्तौ तु स्वतः परतश्चेति । १-२१ ॥" ---अर्थात् प्रामाण्य और अप्रामाण्यकी उत्पत्ति परतः ही होती है। किन्तु ज्ञप्ति स्वतः और परतः होती है।
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