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________________ १०८ जैन न्याय धर्म प्रवृत्तिमें हेतु हुआ करते हैं। इसी तरह अर्थपरिच्छेद रूप स्वकार्यमें भी प्रमाणको प्रवृत्ति बिना प्रामाण्यके निश्चयके नहीं होती। क्योंकि प्रमाणका कार्य अर्थका बोध करा देना मात्र नहीं है; क्योंकि यह कार्य तो अप्रमाण ज्ञानसे भी हो जाता है । अतः वस्तुका यथार्थ परिच्छेद कराना प्रमाणका कार्य है । और यह कार्य प्रामाण्यका निश्चय हए बिना नहीं होता। क्योंकि प्रथम तो अर्थ मात्रका परिच्छेद होता है। इसके बाद जब प्रामाण्यका निश्चय हो जाता है कि यह ज्ञान प्रमाण है तब उसका परिच्छेद यथार्थ माना जाता है। शायद कहा जाये कि इस तरहसे प्रामाण्यका निश्चय माननेपर अनवस्था आदि दोष आयेंगे, किन्तु ऐसी बात नहीं है क्योंकि अभ्यस्त विषयमें प्रामाण्यका निश्चय स्वतः हो जाता है। जैसे अपने ग्रामके जिस जलाशयको हम जन्मसे देखते आते हैं, और उससे पानी लेते हैं, उसके ज्ञानके प्रामाण्यका निश्चय तत्काल ही हो जाता है। इसी तरह अभ्यस्त विषयमें यदि कहीं मिथ्या ज्ञान हो जाता है तो उसके अप्रामाण्यका निश्चय भी तत्काल स्वतः हो जाता है। अतः अभ्यास दशामें प्रामाण्य और अप्रामाण्यका निश्चय स्वतः होता है और अनभ्यास दशामें परतः होता है । क्योंकि किसी अपरिचित जगह में जल ज्ञान होनेपर उसके प्रामाण्यका निश्चय मेढ़कोंकी 'टर टर्र'से, अथवा पानी भरकर आनेवाले स्त्री-पुरुषोंसे होता है, क्योंकि ये बातें पानीके अभावमें नहीं हो सकती। यहां अनवस्था दोषका भय भी नहीं है, क्योंकि 'मेढ़कोंकी टर्र टर्र' और पानी भरकर लानेवाले स्त्री-पुरुषोंका आवागमन जलके अविनाभावी हैं यह सब जानते हैं, अतः इनके निश्चयके लिए किसी अन्य प्रमाणको आवश्यकता नहीं है। ऊपर मीमांसकने कहा है कि बोधकत्वका नाम ही प्रामाण्य है। सो बोधकत्वसे यदि 'अर्थमात्रका बोधकत्व' अभीष्ट है, तब तो मिथ्याज्ञान भी प्रमाण कहलायेगा; क्योंकि मिथ्याज्ञान भी अर्थ मात्रका बोधक होता है । मीमां०-जिस ज्ञान के बाद उसका कोई बाधक उत्पन्न नहीं होता वह ज्ञान सच्चा होता है । मिथ्याज्ञानमें तो बाधक उत्पन्न हो जाता है, जो बतलाता है कि यह ज्ञान मिथ्या है । इसीसे हम अप्रामाण्यको परतः मानते हैं। जैन-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जब आप यह मानते हैं कि प्रामाण्य ज्ञानके स्वरूपका समकालभावी है तब परतः अप्रामाण्यके लिए अवकाश ही फिर अप्रामाण्य से आपका क्या मतलब है-प्रामाण्यके अभावका नाम अप्रामाण्य है, अथवा अप्रामाण्य कोई वस्तुभूत धर्म है ? प्रथम पक्षमें तो प्रामाण्यका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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