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________________ प्रमाण मीमां० - दोषरहित सामग्रीसे ही प्रामाण्यको उत्पत्ति होती है, दोषसहितसे नहीं । जैन - तब तो प्रामाण्यकी उत्पत्ति परतः ही हुई; क्योंकि विज्ञानको उत्पन्न करनेवाले कारणोंके अतिरिक्त दोषाभावरूप कारणसे प्रामाण्य उत्पन्न होता है । और दोषाभाव विज्ञान मात्रकी उत्पत्तिका कारण नहीं है, क्योंकि दोषाभावके बिना भी मिथ्याज्ञान होता है, किन्तु प्रामाण्यकी उत्पत्ति में दोष। भाव ही कारण है, क्योंकि दोषाभाव के होनेपर प्रामाण्य उत्पन्न होता है और उसके नहीं होनेपर नहीं होता । १०७ तथा, एक प्रश्न यह है कि दोष चक्षु वगैरह में क्या कर देते हैं, जिससे उनके होनेपर प्रामाण्यकी उत्पत्ति नहीं होती ? प्रामाण्यको उत्पन्न करनेकी शक्तिको नष्ट कर देते 1 मीमां जैन - तो चक्षु आदिकी जो शक्ति ज्ञान सामान्यको उत्पन्न करती है, क्या वही प्रामाण्यको भी उत्पन्न करती है, अथवा अन्य शक्तिसे प्रामाण्य उत्पन्न होता है ? यदि उसीसे प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है तो उस शक्तिके नष्ट हो जानेपर चक्षुसे ज्ञानमात्रकी उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि प्रामाण्य अन्य शक्ति से उत्पन्न होता है तो प्रामाण्य परतः क्यों नहीं हुआ कहलाया । अतः प्रामाण्यको उत्पत्ति स्वतः नहीं होती । प्रामाण्यकी ज्ञप्ति भी स्वतः नहीं होती । ज्ञप्तिका अर्थ है ज्ञानके प्रामाण्यका निश्चय कि यह ज्ञान प्रमाण है । प्रामाण्य का निश्चय कदाचित् ही होता है, अतः वह बिना निमित्तके नहीं हो सकता । क्योंकि जो कादाचित्क होता है, वह बिना निमित्तके नहीं होता जैसे घर वगैरह । और जिसका निश्चय किसी अन्य निमित्तसे किया जाता है, वह स्वतः कैसे कहा जा सकता है ? Jain Education International इसी तरह प्रमाणकी स्वकार्य में प्रवृत्ति भी स्वतः नहीं होती । क्योंकि प्रमाणका कार्य पुरुषकी प्रवृत्ति है अथवा अर्थका परिच्छेद ( जानना ) है ? इनमें से प्रमाण पुरुषकी प्रवृत्ति में हेतु तभी हो सकता है जब उसके प्रामाण्यका निश्चय हो जाये । जैसे अप्रामाण्य का निश्चय हो जानेपर वह निवृत्तिमें हेतु होता है वैसे ही प्रामाण्यका निश्चय हो जानेपर प्रमाण प्रवृत्ति में हेतु होता है । जो बुद्धिमान् होते हैं वे आवश्यकता होने मात्र से ही किसी विषय में प्रवृत्त नहीं होते हैं । जैसे जरा और मृत्यु आदिको दूर करने की सामर्थ्य रखनेवाली महौषधि में भी, यदि इस बातका निर्णय न हुआ हो कि उसमें अमुक सामर्थ्य है तो कितनी ही आवश्यकता होनेपर भी बुद्धिमान् उसका सेवन नहीं करते । अतः निश्चय हो जानेपर ही वस्तु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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