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________________ जैन न्याय ” और यदि वे हों भी तो वे प्रामाण्यकी उत्पत्ति में कुछ भी नहीं करते। उनका काम तो दोषों को दूर करना मात्र है । पदार्थोंका स्वरूप ही ऐसा है कि वे जब उत्पन्न होते हैं तो अपने प्रतिपक्षीको हटाकर ही उत्पन्न होते हैं । गुण दोषोंके प्रतिपक्षी हैं, अतः गुणोंके द्वारा दोषोंके दूर हो जानेपर जब कारण स्वयं ही व्यापार करते हैं तो प्रमाण ज्ञानको ही उत्पन्न करते हैं । यदि ज्ञानके उत्पन्न होनेपर भी उसमें स्वयं अपना कार्य करनेकी शक्ति नहीं आती, तो यही कहना होगा कि ज्ञान उत्पन्न ही नहीं हुआ । क्या यह बात प्रतीति विरुद्ध नहीं है कि अग्नि जब उत्पन्न होती है तो अप्रकाशक होती है पीछे उसमें अन्य कारणों से प्रकाशकपना आदि धर्म लाये जाते हैं ? १०४ प्रमाणभूत ज्ञानको उत्पन्न करने में गुणोंका हाथ है ऐसा मान भी लिया जाये, फिर भी प्रामाण्य परतः नहीं होता; क्योंकि प्रामाण्यका मतलब है, 'बोधकपना' वह बोधकपना यदि ज्ञानके जन्मके साथ ही उसमें आ जाता है तो प्रामाण्य स्वतः ही हुआ कहलाया । इस प्रकार सभी ज्ञानोंमें बोधकत्व रूप प्रामाण्य स्वभावसे ही होता है । किन्तु उनमें से जो ज्ञान दुष्ट कारणसे उत्पन्न होता है और जिसके मिथ्या होनेका प्रत्यय हो जाता है वह ज्ञान अप्रमाण कहा जाता है । अतः अप्रामाण्य का निश्चय परतः ही होता है । यह मीमांसकका मत है । उत्तर पक्ष - जैन दर्शन मीमांसकके इस मतको ठीक नहीं मानता । उसका कहना है— मीमांसक कहता है कि अर्थको जाननेकी शक्तिका नाम प्रामाण्य है, तो क्या अर्थमात्रको जानने की शक्तिका नाम प्रामाण्य है अथवा जैसा अर्थ है उसी रूप में उसे जानने की शक्तिका नाम प्रामाण्य है ? प्रथम पक्ष में संशय, विपर्यय आदि मिथ्या ज्ञानोंसे व्यभिचार आ जायेगा क्योंकि ये ज्ञान अप्रमाण हैं फिर भी अर्थ - मात्रको जाननेको शक्ति उनमें भी है । दूसरे पक्ष में प्रामाण्य परतः सिद्ध होता है; क्योंकि ज्ञान सामान्यको उत्पन्न करनेवाली सामग्रीसे यथार्थ वस्तुको जानने रूप प्रामाण्यकी उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु गुणयुक्त सामग्री से ही होती है । मीमां०- गुणोंकी प्रतीति ही नहीं होती, तब कैसे प्रामाण्यको उत्पत्ति गुणोंसे मान ली जाये ? जैन - ऐसा कहना ठीक नहीं है। सभी मनुष्योंको गुणोंकी प्रतीति होती है । चक्षु आदिमें पायी जानेवाली निर्मलता आदि विषय में पायी जानेवाली , १. मीमां० श्लो०, सूत्र २ । २. शाबरभा० ११ ११५ । ३. न्या० कु०, पृ० १६७-२०४ । प्रमेयक० मा०, पृ० १४६ - १७६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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