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________________ १०३ प्रमाण __१०३ "आत्मलाभे हि भावानां कारणापेक्षिता भवेत् । लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु ॥" [मोमां० श्लो० २-४८ ] अर्थात्-पदार्थोके उत्पन्न होनेमें ही कारणोंकी अपेक्षा होती है। जब वे उत्पन्न हो जाते हैं, तब अपने-अपने कार्योंमें स्वयं ही प्रवृत्ति करने लगते हैं । अतः प्रामाण्यकी उत्पत्तिमें गुण वगैरहकी अपेक्षा नहीं होती । इसी तरह अर्थको जाननेरूप जो प्रमाणका कार्य है, उसमें भी प्रामाण्य ग्रहणकी अपेक्षा नहीं है; क्योंकि प्रमाणके प्रामाण्यका ग्रहण किये बिना भी उससे अर्थका बोध हो जाता है। किन्तु यदि संवादक ज्ञानसे, अथवा गुणोंके ज्ञानसे, अथवा अर्थक्रियाके ज्ञानसे प्रमाण के प्रामाण्यका निश्चय किया जायेगा तो अनवस्था आदि अनेक दोष आयेंगे। क्योंकि उक्त ज्ञानोंके द्वारा प्रथम ज्ञानमें प्रामाण्यका निश्चय करनेपर उन ज्ञानोंके प्रामाण्यका निश्चय अन्य संवादज्ञान, गुणज्ञान और अर्थक्रियाके ज्ञानसे करना होगा। यदि संवादज्ञान, गुणज्ञान और अर्थक्रियाज्ञानके प्रामाण्यका निश्चय अन्य संवादज्ञान वगैरहके बिना स्वतः ही हो जाता है तो प्रथम ज्ञानके प्रामाण्यका निश्चय भी स्वतः ही करने में क्यों आपत्ति है ? अतः प्रामाण्य स्वतः ही होता है। 'अप्रामाण्य परतः होता है; क्योंकि अप्रामाण्यकी उत्पत्ति ज्ञान सामान्यके उत्पादक कारणोंके अतिरिक्त दोष नामक कारणसे होती है, चक्ष वगैरहमें दोषके होनेसे ही ज्ञान अप्रमाण होता है। अप्रमाणके तीन भेद हैं-संशय, विपर्यय और अज्ञान । इनमें से अज्ञान तो ज्ञानाभाव स्वरूप है, अतः वह स्वयं ही होता है, उसमें किसीकी अपेक्षा नहीं है। संशय और विपरीत ज्ञानके होने में ज्ञाताका भूखा आदि होना, मनका अस्थिर होना, इन्द्रियोंमें खराबी होना तथा पदार्थका चंचल आदि होना, ये सब दोष यथासम्भव कारण होते हैं । तथा जैसे प्रमाणका कार्य अपने विषयमें प्रवृत्ति कराना है, वैसे ही अप्रमाणका कार्य अपने विषयसे निवृत्ति कराना है। किन्तु जबतक ज्ञाताको यह ज्ञात नहीं हो जाता कि यह ज्ञान अप्रमाण है तबतक वह उसके विषयसे निवृत्त नहीं होता। अत: अप्रामाण्यकी उत्पत्तिकी तरह उसकी ज्ञप्ति भो परतः ही होती है। शायद कहा जाये कि जैसे अप्रामाण्यको उत्पत्ति दोषोंके कारण होती है वैसे हो प्रामाण्य की उत्पत्ति भी गुणों के कारण होती है, अतः प्रामाण्य भी परतः होता है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि प्रथम तो गुण ही असिद्ध हैं - १. मी० श्लो०, सूत्र २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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