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________________ १०२ जैन न्याय सकता वैसे ही प्रमाणका प्रत्यक्ष हुए बिना उसके द्वारा प्रतिभासित अर्थका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । अत: जैन दर्शनमें स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है। प्रामाण्य-विचार प्रमाणके स्वरूपका विचार करते समय दार्शनिकोंमें यह भी विचार किया जाता है कि प्रमाणमें जो प्रामाण्य है वह कैसे उत्पन्न होता है और यह कैसे पता चलता है कि अमुक ज्ञान प्रमाण है और अमुक ज्ञान अप्रमाण है ? अर्थात् प्रामाण्य को उत्पत्ति और ज्ञप्ति स्वतः होती है या परतः होती है ? पूर्वपक्ष-मीमांसक स्वतःप्रामाण्यवादी है उसका कहना है-प्रमाणकी अर्थको जाननेरूप शक्तिको अथवा अर्थके जाननेरूप क्रियाको प्रामाण्य कहते हैं । वह प्रामाण्य ज्ञानमात्रको उत्पन्न करनेवाली सामग्रीसे ही उत्पन्न होता है । उसके लिए उस सामग्रीके अतिरिक्त अन्य किसीकी आवश्यकता नहीं पड़ती। इसीका नाम स्वतःप्रामाण्य है। तथा, अर्थको ज्योंका त्यों जान लेनेको शक्तिका नाम प्रामाण्य है। और शक्तियाँ पदार्थों में स्वतः ही प्रकट होती हैं, वे उत्पादक कारणोंके अधीन नहीं हैं। कहा भी है "स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते ॥" [मीमां० श्लो० २-४७ ] अर्थात-सब प्रमाणोंका प्रामाण्य स्वतः ही होता है, क्योंकि जो शक्ति स्वयं अविद्यमान है, उसे कोई दूसरा उत्पन्न नहीं कर सकता। आशय यह है कि कार्यमें वर्तमान जो धर्म कारणमें रहता है, वह कार्यकी तरह उस कारणसे ही उत्पन्न होता है। जैसे मिट्टीके पिण्डमें विद्यमान रूप आदि उससे उत्पन्न होनेवाले घटमें भी पाये जाते हैं । वे मिट्टोके पिण्डसे ही घटमें आते है। किन्तु जो धर्म कार्यमें पाये जायें और कारणमें न पाये जायें, वे धर्म कारणसे उत्पन्न नहीं होते, किन्तु स्वतः ही होते हैं। जैसे घटमें पानी भरकर लानेकी शक्ति है । यह शक्ति मिट्टीके पिण्डमें नहीं है । अतः यह शक्ति घटमें स्वयं प्रकट होती है। इसी तरह ज्ञानमें भी अर्थको ज्योंका त्यों जाननेकी शक्ति है। यह शक्ति ज्ञानको उत्पन्न करनेवाले चक्षु आदि कारणोंमें नहीं पायी जाती, अतः यह उनसे उत्पन्न न होकर स्वयं प्रकट होती है । कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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