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प्रमाण
होता है। सृष्टिकालके आरम्भ में 'मैं पुरुषके लिए प्रवृत्त होऊ' यह अनुसन्धान किसे होगा; क्योंकि प्रकृति जड़ है और पुरुष उस समय तक अभिलाषासे शून्य है । इसके सिवा जैसे दर्पण में मुख प्रतिबिम्बित होता है वैसे ही पुरुषका बुद्धिमें प्रतिबिम्बित होना ही चिच्छायासंक्रान्ति कहलाता है । किन्तु व्यापक पदार्थ किसी में प्रतिबिम्बित नहीं हो सकता, जैसे आकाश । उसी तरह आत्मा भी सांख्यदर्शन में व्यापक है | अतः उसका बुद्धिमें प्रतिबिम्बित होना सम्भव नहीं है । मुख अस्वच्छ होता है और दर्पण स्वच्छ होता है, अतः मुखका दर्पण में प्रतिबिम्बित होना उचित है । किन्तु बुद्धि तो त्रिगुणात्मक होनेसे अत्यन्त मलिन है और पुरुष अत्यन्त निर्मल है । तब पुरुष बुद्धि में प्रतिबिम्बित कैसे हो सकता है ? यदि होता भी हो तो हम उसे जान कैसे सकते हैं ? यदि जान लें तो प्रकृति और पुरुषका भेद ज्ञान होने से सब सदा के लिए मुक्त हो जायेंगे ।
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ऊपर कहा गया है कि चेतनके संसर्गसे अचेतन बुद्धि भी चेतनकी तरह प्रतीत होती है सो यहाँ संसर्ग शब्दका क्या अर्थ है - बुद्धिमें चेतनका प्रतिबिम्बित होना अथवा प्रकृतिका भोग्य और पुरुषका भोक्ता होना ? प्रथम पक्षकी आलोचना ऊपर की जा चुकी है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि पुरुष निरभिलाष है । पुरुष के निरभिलाष होनेपर प्रकृतिकी योग्यता और पुरुषकी भोक्तृता नहीं बनती क्योंकि सुख-दुःखकी अनुभूति रूप भोगके अभाव में भोग्य और भोक्तापना नहीं होता । बुद्धि और चैतन्य के लिए अग्नि और लोहेके गोलेका दृष्टान्त भी उपयुक्त नहीं है । अग्नि और लोहे के गोले में भी परस्पर में भेद नहीं है; क्योंकि लोहेका गोला आगमें पड़कर अपने पूर्वरूपको छोड़ देता है और विशिष्ट रूपं तथा स्पर्शको धारण करके अग्निरूप परिणत हो जाता है । इसी तरह यहाँ भी एक स्वपरप्रकाशक वस्तुका अनुभव होता है । उसमें किसी दूसरेका सद्भा नहीं मानना चाहिए । चैतन्य, बुद्धि, अव्यवसाय, ज्ञान, संवित्ति ये सब एक ही संविद्रूपकी पर्याय हैं । अतः बुद्धि ओर चैतन्यको जुदा मानकर ज्ञानको अस्वसंविदित मानना उचित नहीं है ।
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इस तरह जैन दर्शनमें ज्ञान चैतन्यस्वरूप है । अतः वह जैसे बाह्य पदार्थ के उन्मुख होनेपर बाह्य अर्थको ग्रहण करता है वैसे ही अपने उन्मुख होनेपर अपनेको भी ग्रहण करता है । यदि ऐसा न हो तो 'मैं घट को जानता हूँ' इस प्रकार - की प्रतीति नहीं हो सकती । भला कौन ऐसा समझदार व्यक्ति है, जो ज्ञानके द्वारा प्रतिभासित पदार्थका प्रत्यक्ष होना तो माने और ज्ञानका प्रत्यक्ष न माने ? जैसे प्रकाशका प्रत्यक्ष हुए बिना उसके द्वारा प्रकाशित अर्थका प्रत्यक्ष नहीं हो
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