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जैन न्याय
सांख्य-यदि अनित्य ज्ञानको आत्माका परिणाम माना जायेगा तो आत्मा अनित्य ठहरेगा।
जैन-यदि अनित्य ज्ञानको प्रधानका परिणाम माना जायेगा तो प्रधान भी अनित्य हो जायेगा।
सांख्य-व्यक्त और अव्यक्त प्रधानमें अभेद होनेपर भी व्यक्त प्रधान ही अनित्य है, क्योंकि वह परिणाम रूप है, अव्यक्त प्रधान अनित्य नहीं है, क्योंकि वह परिणामी है ?
जैन-तो ज्ञान और आत्मामें अभेद होनेपर भी ज्ञान ही अनित्य है, क्योंकि वह परिणाम है । आत्मा अनित्य नहीं है; क्योंकि वह परिणामी है। यदि आत्माको अपरिणामी माना जायेगा तो वह अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकती और अर्थक्रियाकारी न होनेपर आत्माका अभाव हो जायेगा; क्योंकि अर्थक्रियाकारित्व ही वस्तुत्वका लक्षण है।
बुद्धिको प्रलय काल तक स्थायी और व्यापी मानना भी असंगत है; क्योंकि वह प्रधानका परिणाम है। जैसे पट प्रधानका परिणाम होनेपर भी न तो व्यापी है और न प्रलयकाल तक स्थायी है, वैसे ही बुद्धिको भी मानना चाहिए । शायद कहा जाये कि आकाश प्रधानका परिणाम होनेपर भी व्यापक और स्यायी है, इसी तरह बुद्धि भी है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि आकाश भी प्रधानका परिणाम नहीं है। यदि उसे भी प्रधानका परिणाम माना जायेगा तो वह भी व्यापक और स्थायी नहीं हो सकता।
सांख्य-प्रधानका परिणाम होनेपर भी कोई परिणाम तो व्यापक और प्रलयकाल तक स्थायी होता है और कोई नहीं होता।
जैन-तो प्रधान का परिणाम होनेपर भी ज्ञानको स्वसंविदित और घटादिको अस्वसंविदित क्यों नहीं मान लेते ? तथा, यह बुद्धि रूप परिणाम पहले-पहले प्रकृतिसे कैसे होता है ? यदि स्वभावसे ही होता है तो जो स्वाभाविक होता है, वह अनित्य नहीं हो सकता। अतः बुद्धिरूप परिणाम सदा स्थायो रहेगा; क्योंकि स्वभाव सदा रहता है।
सांख्य-'मुझे आत्माके लिए भोगका सम्पादन करना चाहिए' इस भावसे प्रकृति ‘महत्' आदि रूपसे परिणमन करती है ?
जैन-प्रकृति तो जड़ है। उसमें इस प्रकारका अनुसन्धान नहीं हो सकता। बुद्धिवृत्तिके उत्पन्न होनेपर और उसमें चेतनकी छायाके पड़नेपर ही अनुसन्धान
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