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प्रमाण
ज्ञानका अचेतनत्व
पूर्वपक्ष सांख्यका मत है कि घट-पटकी तरह ज्ञान भी अचेतन है; क्योंकि वह भी प्रधानका ही परिणाम है । जो चेतन होता है वह प्रधानका परिणाम नहीं होता, जैसे आत्मा । किन्तु ज्ञान प्रधानका परिणाम है । सांख्य दर्शन में कहा है कि जब प्रधान नामका तत्त्व जगत्की रचनामें लगता है तो सबसे प्रथम उससे एक व्यापक 'महान' तत्त्वका जन्म होता है । यह महान् नामका तत्त्व विषयोंका अध्यवसाय कराता है । यह प्रलयकाल पर्यन्त स्थायी होता है । इस तत्त्वको हम नहीं जान सकते । इस तत्त्वसे प्रत्येक प्राणीकी बुद्धि निःसृत होती है । ये बुद्धियाँ दूसरे प्रमाणोंके द्वारा जानी जाती हैं । चूँकि बुद्धि जड़ है, अतः उसमें ज्ञानका उदय नहीं हो सकता । इसलिए अकेले न तो पुरुषमें और न बुद्धिमें अनुभवकी उपलब्धि होती है; किन्तु दोनोंके मेलसे होती है । जब इन्द्रियाँ पदार्थोंको बुद्धिके सामने उपस्थित करती हैं तो बुद्धि उस पदार्थके आकारको धारण कर लेती है । इतने पर भी तबतक अनुभवका उदय नहीं होता जबतक बुद्धिमें चेतन पुरुषका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता । बुद्धि में प्रतिबिम्बित पुरुषका पदार्थोंसे सम्पर्क होनेका नाम ही ज्ञान है । जबतक दर्पण के तुल्य बुद्धि में पदार्थका आकार संक्रान्त नहीं होता तबतक पुरुषको उसका भान नहीं होता। कहा भी है- 'बुद्धयध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते ।' -- अर्थात् बुद्धिमें प्रतिबिम्बित अर्थका अनुभव पुरुष करता है । यह अनुभव बुद्धि तथा पुरुषके संयोगका परिणाम है । जैसे लोहेका गोला और आग पृथक्-पृथक् हैं किन्तु जब लोहेका गोला अग्निरूप हो जाता है तो मूढ़ पुरुष उन्हें ( अग्नि और गोलेको ) एक समझ लेता है । वैसे ही बुद्धि और चैतन्य पृथक्-पृथक् हैं, किन्तु अचेतन भी बुद्धि चेतनके संसर्गसे चेतनकी तरह प्रतीत होती है । बुद्धिके अचेतन होने से उसमें पदार्थकी उपस्थिति होनेपर जो ज्ञान सुख आदि उत्पन्न होते हैं वे भी अचेतन ही हैं । अतः अचेतन ज्ञान स्वसंविदित नहीं हो सकता ।
उत्तर पक्ष-जैनों का कहना है कि ज्ञान जड़का धर्म नहीं है, वह तो आत्माका धर्म है । आत्मा ज्ञान परिणामवाला है, चूंकि वह द्रष्टा है । जो ज्ञान परिणामवाला नहीं होता वह द्रष्टा भी नहीं होता, जैसे घर वगैरह । चूँकि आत्मा द्रष्टा है, अतः वह ज्ञानपरिणामत्राला है ।
१. न्या० कु०, पृ० १८६ | सांख्यका० २२ । सांख्य प्र० भा० १ । ७१ ।
२. सांख्यका० ३६-३७ । सांख्य प्र० भा० १ । ८७ ।
३. न्या० कु०, पृ० १६१ । प्रमेयक० मा० ६८-१०३ ।
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