________________
९८
.
जैन न्याय
इसी तरह हलन चलन रूप क्रिया भी हम ज्ञान में नहीं मानते; क्योंकि ऐसी क्रिया तो द्रव्यमें होती है। धात्वर्थ रूप क्रिया दो प्रकारकी होती है--अकर्मक और सकर्मक । इनमें से अकर्मक क्रिया तो स्वात्मामें होती ही है--जैसे 'वृक्ष खड़ा है'। यहाँ 'खड़ा' रूप क्रियाका कर्ता वृक्ष है, उसी में यह क्रिया विद्यमान है। शायद कहा जाये कि इसमें हमें कोई विरोध नहीं है; क्योंकि वैसी प्रतीति होती है, तो 'ज्ञान प्रकाशित होता है' यहाँ भी प्रतीति होनेसे कोई विरोध नहीं होना चाहिए।
नैया०---'ज्ञान अपनेको जानता है' यह सकर्मक क्रिया स्वात्मामें नहीं हो सकती क्योंकि कर्तासे कर्म जुदा होता है ?
जैन--तब तो 'आत्मा अपना घात करता है' 'दीपक अपना प्रकाशन करता है' इत्यादिमें विरोध उपस्थित होगा।
इसी तरह जानने रूप क्रियाका स्वात्मामें विरोध नहीं है यह भी समझ लेना चाहिए । स्वरूपके साथ किसीका विरोध नहीं हो सकता, अन्यथा दीपकका भी स्वपरप्रकाशकत्व रूप अपने स्वभावके साथ विरोध मानना पड़ेगा। अतः जैसे दीपक अपने कारणोंसे स्वपरप्रकाशन स्वभावको लेकर उत्पन्न होता है वैसे ही ज्ञान भो स्वपरव्यवसायी होकर ही जन्म लेता है। इसके विपरीत यदि यही माना जायेगा कि पूर्व ज्ञानको उत्तर ज्ञान जानता है तो ज्ञानके उत्पन्न करने में ही मन लगा रहेगा, अतः न कभी अर्थका ज्ञान हो पायेगा और न अर्थज्ञानका; क्योंकि अर्थज्ञान-ज्ञानके अप्रत्यक्ष होनेपर अर्थज्ञानका और अर्थज्ञानके अप्रत्यक्ष होनेपर अर्थका प्रत्यक्ष हो नहीं सकता, अन्यथा दूसरे मनुष्यके ज्ञानसे भी अर्थका प्रत्यक्ष हो जायेगा; क्योंकि हमारे लिए जैसे अपना ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है, वैसे ही दूसरोंका ज्ञान भी प्रत्यक्ष नहीं है।
नैया०--अर्थकी जिज्ञासा होनेपर अर्थका ज्ञान उत्पन्न होता है और ज्ञानकी जिज्ञासा होनेपर ज्ञानका । अतः अनवस्था दोष नहीं आता ?
जैन--जिज्ञासासे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती। घोड़ेके अभावमें घोड़ेको देखनेकी इच्छा होने पर भी घोड़ेका दर्शन नहीं होता और सामने गौके आ जानेपर गौको देखनेकी इच्छा न होते हए भी गौका दर्शन हो जाता है। तथा ज्ञानको ज्ञानान्तरके द्वारा ग्राह्य माननेपर ज्ञान अज्ञान हो जायेगा, जैसे प्रकाशके लिए प्रकाशान्तरकी अपेक्षा होनेपर वह प्रकाश न कहा जाकर अप्रकाश ही कहा जायेगा । क्योंकि अपनी सिद्धि में जो परकी अपेक्षा करता है वही तो जड़ है, अन्यथा फिर जड़ और अजड़में भेद ही क्या रहेगा। अतः ज्ञानको ज्ञानान्तरवेद्य न मानकर स्वसंविदित हो मानना उचित है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org