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________________ प्रमाण विदित माने बिना ज्ञानपना नहीं बन सकता । कोई भी स्वभाव एकदेशवर्ती नहीं होता । जैसे प्रकाशका स्वभाव स्व और परका प्रकाशन करना हैं, उसमें यह भेद नहीं है कि सूर्य प्रकाश में तो यह स्वभाव हो और दीपक के प्रकाशमें न हो । दोनोंमें ही स्वपरप्रकाशकपना समान रूपसे पाया जाता है । नैया० - यदि ईश्वरज्ञानकी तरह हम लोगोंका ज्ञान भी स्वपरव्यवसायी है तो उसी तरह वह समस्त पदार्थों का ज्ञाता भी हो जायेगा ? उसके बिना जैन - यह आपत्ति अनुचित है । जैसे दीपक सूर्यकी तरह स्वपरप्रकाशक होते हुए भी समस्त पदार्थों का प्रकाशन नहीं करता; किन्तु अपने योग्य नियत देशवर्ती पदार्थों का ही प्रकाशन करता है, वैसे ही हम लोगों का ज्ञान ईश्वरज्ञानकी तरह स्वपरव्यवसाय होते हुए भी अपने योग्य पदार्थको ही जानता है । सब ज्ञानोंकी योग्यता अपने-अपने ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके अनुसार होती है । ज्ञानों में विषयग्रहण में जो तारतम्य पाया जाता है, वह नहीं बनता । अतः स्वयंविदितत्वको लेकर ईश्वरज्ञान और हम लोगोंके ज्ञानमें भेद नहीं माना जा सकता । जैसे 'यह नील है' इस उल्लेखसे अर्थका ग्रहण होता है वैसे ही 'मैं' इस उल्लेख से आत्माका ग्रहण होता है । नीलज्ञानसे आत्मज्ञान भिन्न कालमें नहीं होता । जिस समय नीलका ज्ञान होता है उसी क्षण में स्पष्ट रूपसे आत्मसंवेदन भी होता है | अतः अर्थसंवेदन आत्मसंवेदनसे भिन्न नहीं है इसलिए अर्थका संवेदन होनेपर आत्मसंवेदन भी तत्काल हो जाता है । अतः 'अर्थज्ञानको उत्तरज्ञान जानता है' यह मान्यता गलत है । क्योंकि 'पहले अर्थज्ञान होता है और पीछे उस ज्ञानका ज्ञान होता है, इस प्रकारकी प्रतीतिका अनुभव नहीं होता। कहा गया है कि जैसे कमलके सौ पत्तोंको ऊपर नीचे रखकर सुईसे छेदनेपर कालका अन्तर प्रतीत नहीं होता वैसे ही यहाँ भी अन्तर प्रतीत नहीं होता । किन्तु यह कथन संगत नहीं है । कमल के पत्ते तो मूर्तिक हैं । अतः एक पुरुष द्वारा मूर्तिक सूईसे मूर्तिक पत्तोंका छेद तो क्रमसे ही हो सकता है। किन्तु आत्मा तो अमूर्तिक है, स्वपर प्रकाशन स्वभाववाला है, अप्राप्त अर्थका भी प्रकाशक है । वह यदि एक साथ अपना और विषयका प्रकाशन करता है तो उसमें क्या विरोध है ? नैया० - स्वात्मामें क्रियाका विरोध है । o Jain Education International ९७ जैन - स्वात्मा में ज्ञानकी किस क्रियाका विरोध है -- उत्पत्तिरूप क्रियाका विरोध है, अथवा हलन चलन रूप क्रियाका अथवा धात्वर्थरूप क्रियाका अथवा जानने रूप क्रियाका ? यदि उत्पत्ति रूप क्रियाका विरोध है तो हो, क्योंकि हम यह नहीं मानते कि ज्ञान स्वयं अपनेको उत्पन्न करता है ? उसकी उत्पत्ति तो अपनी सामग्री से होती है । १३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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