________________
जैन न्याय
है अथवा स्वकोयके द्वारा संवेदनका नाम स्वसंवेदन है ? यदि स्वकीयके द्वारा संवेदनको स्वसंवेदन कहते हो तब तो हमें उसमें कोई आपत्ति नहीं है; क्योंकि स्वकीय उत्तर ज्ञानके द्वारा पूर्वज्ञानका संवेदन होता है, यह हम मानते ही हैं। हाँ, यदि ‘ज्ञान स्वयं ही अपनेको जानता है' यह स्वसंवेदनसे मतलब है, तब तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अपने में ही क्रियाके होने में विरोध है । कैसी ही तीक्ष्ण तलवार हो, क्या वह स्वयं अपने को ही काट सकती है ? कैसा ही सुशिक्षित नट हो, क्या वह स्वयं अपने कन्धेपर चढ़ सकता है ? अत: 'ज्ञान स्वप्रकाशक है; क्योंकि वह अर्थका प्रकाशक है, जैसे दीपक' जैनोंका यह कथन अयुक्त है।
- उत्तर पक्ष-नैयायिकका कहना है कि हम लोगोंके ज्ञानको हो ज्ञानान्तरवेद्य मानते हैं, ईश्वर ज्ञानको नहीं। तो इसपर प्रश्न यह है कि ईश्वरका ज्ञान स्वसं विदित है, यह आप किसी युक्तिके आधार पर मानते हैं अथवा यों ही मानते हैं ? यदि यों ही मानते हैं तब तो सभी दार्शनिकों के अभिमत यों ही सिद्ध हो जायेंगे फिर उनमें विवाद उठाना ही व्यर्थ है। यदि युक्तिके आधारपर ईश्वरके ज्ञानको स्वसंविदित मानते हैं तो वह युक्ति क्या है-ईश्वरका ज्ञान अर्थको ग्रहण करता है इसीलिए वह स्वसंविदित है अथवा ज्ञान होने से वह स्वसंविदित है ? ये दोनों बातें हम लोगोंके ज्ञान में भी पायी जाती हैं, अतः या तो दोनोंको हो स्वसंविदित मानना चाहिए या फिर किसीको भी स्वसंविदित नहीं मानना चाहिए।
नैया-ई रका ज्ञान हमारे ज्ञान से विशिष्ट है । अतः वही स्वसंविदित है, हमारा ज्ञान नहीं। विशिष्ट वस्तुके धर्मको साधारण वस्तु में मानना बुद्धिमानी नहीं है ?
जैन-तब तो ज्ञानपना और अर्थग्रहणपना भी ईश्वरज्ञानमें पाया जाता है अतः हमारे ज्ञान में उनका भी निषेध करना पड़ेगा।
नैया०-इन दोनों धर्मों के अभावमें तो कोई ज्ञान ज्ञान हो नहीं रहेगा; क्योंकि ज्ञानपना और अर्थग्राहकपना तो ज्ञान के स्वभाव हैं ?
जैन-जैसे इन दोनों धर्मोके अभावमें ज्ञान ज्ञान नहीं रह सकता वैसे ही स्वसंविदित स्वभावके अभावमें भी ज्ञान ज्ञान नहीं रह सकता, वह भी ज्ञानका स्वभाव ही है। जैसे ईश्वरज्ञान में ज्ञानत्व और अर्थ ग्राहकत्व धर्मोंकी तरह स्वसंविदितत्वके भी बिना ज्ञानपना नहीं है वैसे ही हम लोगोंके ज्ञानोंमें भी स्वसं.
१. न्या० कु०, पृ० १८३ । प्रमेयक० मा०, पृ० १३२-१४६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org