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प्रमाण
क्रिया भी परोक्ष नहीं हो सकती । तथा, ज्ञान जब उत्पन्न होता है तो स्वानुभव विशिष्ट ही उत्पन्न होता है और अर्थ उसका विषयभूत होता है । तभी तो 'मैं अर्थको जानता हूँ ऐसी प्रतीति होती है । यदि ज्ञानको सर्वदा अनुमेय माना जायेगा तो यह प्रतीति नहीं हो सकती । अतः ज्ञानको परोक्ष न मानकर स्वयंविद्रूप ही मानना उचित है ।
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ज्ञानान्तरवेद्य ज्ञानवाद
पूर्वपक्ष - नैयायिक का मन्तव्य है कि ज्ञानको स्वसंविदित मानना अयुक्त है; ज्ञानको तो दूसरा ज्ञान ही जानता है; जैसे घट वगैरह प्रमेय होनेसे ज्ञानके द्वारा ही जाना जाता है । शायद यह आपत्ति दी जाये कि ईश्वरका ज्ञान भी प्रमेय है, किन्तु वह ज्ञानान्तरवेद्य नहीं है, अतः उससे उक्त कथन में दोष आयेगा । किन्तु ऐसा कहना समुचित नहीं है, क्योंकि यह चर्चा हम लोगों के ज्ञान के विषय में हैं, ईश्वरज्ञानके विषयमें नहीं है । ईश्वरका ज्ञान हम लोगोंके ज्ञानसे विशिष्ट है । विशिष्ट में जो धर्म पाया जाता है, उसे साधारण ज्ञानमें भी मानना बुद्धिमानी नहीं है । अतः ईश्वरका ज्ञान तो अपनेको स्वयं ही जान लेता है, किन्तु हमारे ज्ञानको उसके अनन्तर होनेवाला दूसरा ज्ञान जानता है । शायद यह आपत्ति की जाये कि यदि अर्थज्ञान और उसका ज्ञान क्रमसे उत्पन्न होते हैं। तो उसी क्रमसे उनका अनुभव होना चाहिए ? किन्तु यह आपत्ति उचित नहीं है; क्योंकि यद्यपि ये दोनों ज्ञान क्रमसे ही होते हैं फिर भी ये दोनों सौ कमलके पत्तोंको ऊपर-नीचे रखकर एक साथ वेधनेकी तरह इतनी जल्दी होते हैं कि उसमें भेदकी प्रतीति नहीं हो पाती ।
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शायद कहा जाये कि यदि अर्थज्ञानका प्रत्यक्ष दूसरे ज्ञानसे होता है तो उस दूसरे ज्ञानका प्रत्यक्ष तीसरेसे होगा और तीसरेका प्रत्यक्ष चौथेसे होगा । इस तरह अनवस्था हो जायेगी । किन्तु यह कथन भी ठोक नहीं है; क्योंकि अर्थज्ञानका दूसरे ज्ञानसे और दूसरेका तीसरे ज्ञानसे प्रत्यक्ष हो जानेसे काम हो जाता है, फिर चौथे आदि ज्ञानोंको कल्पना निरर्थक होनेसे अनवस्था सम्भव नहीं होती । अर्थकी जिज्ञासा होनेपर अर्थका ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और ज्ञानको जिज्ञासा होनेपर ज्ञानका ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । यह बात प्रतीति सिद्ध है । इसके विरुद्ध जो लोग ज्ञानको स्वसंविदित मानते हैं उनसे हम पूछते हैं कि स्वसंवेदनसे क्या मतलब है -- 'स्व' के द्वारा संवेदनका नाम स्वसंवेदन १. न्या० कु०, पृ० १८१ । विधिवि० न्यायकणि०, पृ० २६७ । प्रशस्त० व्योम० पृ० ५२६ ।
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