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जैन न्याय
क्योंकि ऐसे स्थानपर प्रायः विजातीय कार्यके अभावमें भी उसके उत्पादक हेतु रह सकते हैं । विषय, इन्द्रिय और मनका ज्ञानको उत्पन्न करना एक विजातीय कार्य है, अतः ज्ञानके विषय में वे अप्रतिहत शक्ति कैसे हो सकते हैं ? अतः व्यभिचारकी सम्भावना होनेसे ज्ञानके विषयमें विषयादि लिंग नहीं हो सकते । इसके सिवा जो ज्ञानको परोक्ष मानता है, उसको कभी विषयादिका प्रत्यक्ष हो नहीं सकता। क्योंकि ज्ञानका बोध न होने पर उसके विषयका बोध नहीं हो सकता । अकलंकदेवने कहा भी है
"परोक्षज्ञानविषयपरिच्छेदः परोक्षवत् ॥” ११ ॥ -[ न्या० वि० ] ऐसी स्थितिमें वे लिंग कैसे हो सकते हैं ? . ___ ज्ञान भी लिंग नहीं हो सकता; क्योंकि परोक्षज्ञानवादी मीमांसकोंके लिए विज्ञान स्वयं ही असिद्ध है । और असिद्ध लिंग नहीं हो सकता। इसी बातको अकलंक देवने कहा है--
"विषयेन्द्रिय-विज्ञान-मनस्कारादिलक्षणः ॥१६॥
अहेतुरात्मसंवित्तेरसिद्धेय मिचारतः ॥" - [ न्या० वि० ] अर्थात् आत्मज्ञानके लिए विषय, इन्द्रिय, ज्ञान, मन वगैरह हेतु नहीं हो सकते क्योंकि ये असिद्ध है तथा व्यभिचारी हैं ।
अथवा ज्ञानका अनुमान करनेके लिए यदि कोई लिंग मान भी लिया जाये तो विज्ञान और उस लिंगके अविनाभाव सम्बन्धका ज्ञान होना आवश्यक है। उसके बिना उस लिंगसे परोक्ष बुद्धिका अनुमान नहीं हो सकता। किन्तु ज्ञानके परोक्ष होते हुए उसका लिंगके साथ अविनाभाव सम्बन्ध जानना शक्य नहीं है। अतः अनुमानसे ज्ञानका परिज्ञान माननेवाले मीमांसकको ज्ञानका प्रत्यक्ष मानना चाहिए । जैसा कि अकलंक देवने कहा है--
"तावत्परत्र शक्तोऽयमनुमातुं कथं धियम् ॥१५॥
यावदात्मनि तच्चेष्टासम्बन्धं न प्रपद्यते ।" - [ न्या० वि० ] अर्थात् जबतक यह परोक्षज्ञानवादो मीमांसक मेरी आत्मामें व्यवहार आदि चेष्टाएँ ज्ञानपूर्वक होती है, ऐसा प्रत्यक्षसे नहीं जानेगा तबतक वह दूसरोंमें व्यवहार आदि चेष्टाओंको देखकर उनके द्वारा दूसरोंमें बुद्धिका अनुमान कैसे कर सकता है ?
इसके अतिरिक्त जब मीमांसक आत्माका प्रत्यक्ष मानता है, तब उसकी क्रियाको सदा परोक्ष कैसे मान सकता है; क्योंकि जैसे स्वयं प्रकाशमान दीपकको प्रभारूप क्रिया परोक्ष नहीं होती, वैसे ही स्वयं प्रकाशमान आत्माको ज्ञानरूप
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