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प्रमाण
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निकटता, निश्चलता आदि, मनकी स्थिरता आदि, ज्ञाताको स्वस्थता आदि और प्रकाशकी स्पष्टता आदि क्या गुण नहीं हैं ?
मीमां०-निर्मलता आदि तो चक्षुके स्वरूप है, गुण नहीं है। क्योंकि चक्षु निर्मलताके साथ ही उत्पन्न होती है, निर्मलताके बिना नहीं होती।
जैन-तब तो रूपादिको भी घटका गुण न कहकर स्वरूप कहा जायेगा; क्योंकि घट रूपादि सहित ही उत्पन्न होता है। तथा काच, कामल श्रादिको भी दोष नहीं कहा जा सकेगा; क्योंकि जो पुरुष जन्मसे तिमिररोगसे ग्रस्त होता है उसकी आंखें काच, कामल आदि रोगोंसे युक्त ही उत्पन्न होती हैं। किन्तु जन्मके साथ उत्पन्न होनेपर भी लोग रूपादिको घटका गुण और काच, कामल आदिको चक्षुका दोष ही मानते हैं।
तथा यदि मीमांसक चक्षु आदिमें गुण नहीं मानते तो उसमें हीनाधिकताका व्यवहार क्यों होता है ? अमुककी इन्द्रियाँ तेज है, अमुककी उससे भी तेज हैं, ऐसा व्यवहार सर्वत्र देखा जाता है। तथा जब 'गुण' कोई है ही नहीं तो 'गुणोंसे दोषोंका अभाव होता है' ऐसा क्यों कहा जाता है ?
मीमां०-गुण नामकी कोई वस्तु नहीं है, दोषोंके अभावमात्रको गुण कहा जाता है।
जैन-इस तरहसे तो दोषोंका भी अभाव हो जायेगा; क्योंकि यह कहा जा सकता है कि गुणके अभावका ही नाम दोष है, दोष कोई वस्तु नहीं है । यदि निर्मलता गुण नहीं है और केवल मलके अभावका नाम है तो लोग उसे देखकर ऐसा क्यों कहते हैं कि-'यह आंख गुणवान् है। अंजन वगैरहके द्वारा चक्षुमें गुणातिशय लानेका प्रयत्न किया हो जाता है। यदि अंजनसे चक्षु में गुणातिशय न होता तो व्याघ्र आदिके नेत्रके चूर्णको आँख में आँजनेसे घोर अँधेरी रातमें भी दिखाई कैसे देता और जलजन्तु शिशुमारकी चर्बी आँजनेसे जलके अन्दरकी वस्तुएँ कैसे दिखाई देती। ____मीमां०-गुण हैं तो, किन्तु वे दोषोंको दूर कर देते हैं, बस इतना ही उनका काम है, प्रामाण्य की उत्पत्ति में वे कुछ भी नहीं करते। अतः प्रामाण्य स्वतः होता है।
जैन-इस तरहसे तो अप्रामाण्य भी स्वतः हो जायेगा; क्योंकि यह कहा जा सकता है कि दोष गुणोंको दूर कर देते हैं अप्रामाण्यको उत्पन्न नहीं करते । अतः या तो दोनोंको स्वतः मानना चाहिए या दोनोंको परतः मानना चाहिए। ..
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