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प्रमाण
यह भी आपत्ति की गयी है कि यदि ज्ञानको निराकार माना जायेगा तो सब ज्ञान सब पदार्योंके ग्राहक हो जायेंगे; क्योंकि उनमें परस्परमें कोई अन्तर नहीं रहेगा। किन्तु यह आपत्ति भी समीचीन नहीं है; दीपककी तरह ज्ञान स्वकारणोंसे सामने विद्यमान अर्थमें ही नियमित रहता है। जैसे दीपक घटादिके आकारको धारण करके उनका प्रकाशक नहीं होता। फिर भी वह घरके अन्दर रहनेवाले प्रतिनियत पदार्थोंका ही प्रकाशन करता है, क्योंकि उसकी शक्ति नियत है । उसी तरह ज्ञान अर्थाकार न होनेपर भी प्रतिनियत सामग्रीके निमित्तसे उत्पन्न होनेके कारण तथा प्रतिनियत सामर्थ्य रखनेके कारण प्रतिनियत अर्थको ही जानता है, सबको नहीं जानता। अतः ज्ञानकी साकारताका पक्ष अनेक दोषोंसे दुष्ट होनेके कारण समुचित नहीं है।
शान स्वसंवेदी होता है जैनदर्शन ज्ञानको स्वसंवेदी मानता है। दूसरे ज्ञानकी सहायताके बिना अपने स्वरूपके जाननेका नाम स्वसंवेदन है। जैनदर्शनका कहना है कि ज्ञान स्वको जानता है; क्योंकि वह अर्थको जानता है। जो 'स्व' को नहीं जानता वह अर्थको भी नहीं जानता । जैसे, घट-पट आदि । किन्तु ज्ञान अर्थका ग्राहक है अतः वह 'स्व' का भी ग्राहक है।
परोक्षज्ञानवाद __ पूर्वपक्ष-मीमांसक ज्ञानको स्वसंवेदो नहीं मानते। उनका कहना हैज्ञानका स्वसंवेदन प्रमाणविरुद्ध है, ज्ञान तो परोक्ष ही है; क्योंकि उसकी कर्मरूपसे प्रतीति नहीं होती। जिसका प्रत्यक्ष होता है, उसकी प्रतोति कर्मरूपसे होती है, जैसे अर्थकी। चूँकि ज्ञानकी प्रतीति कर्मरूपसे नहीं होती, अत: वह परोक्ष है।
शायद कहा जाये कि यदि ज्ञान सर्वदा परोक्ष है तो उसके ग्राहक प्रमाणका अभाव होनेसे ज्ञान का ही अभाव हो जायेगा? किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है। प्रत्यक्षरूपसे ज्ञानकी प्रतीति नहीं होतो, इसलिए हम उसे नित्य परोक्ष मानते हैं, अर्थापत्ति नामका प्रमाण उसका ग्राहक है। वह बतलाता है कि कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती, इसलिए ज्ञानक्रिया अर्थ में प्रकटनरूप फलको
१. न्या० कु०, पृ० १७५ । २. शावर भा०. १।१।५, बृहती १११११, पत्रिका, पृ० ६४-६७ । ३. मी० श्लो० टी०, सूत्र १११॥५॥
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