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जैन न्याय
भो जड़ताको जानता है तो अतदाकार ज्ञान ही नील आदि आकारको भी जान लेगा, फिर ज्ञानको साकार माननेका आग्रह क्यों किया जाता है ?
तथा, जैसे एक देशसे सारूप्य होनेके कारण ज्ञान नील पदार्थको जानता है वैसे ही वह समस्त अर्थोको भी जान लेगा; क्योंकि सत्त्व आदि रूपसे सभी पदार्थोंके साथ ज्ञानका सारूप्य है। शायद कहा जाये कि सभी पदार्थोके साय एकदेशसे सारूप्य होनेपर भी वे पदार्थ नोल आदि आकारसे विलक्षण होते हैं, अतः उनका ग्रहण नहीं होता तो समान आकारवाले सब पदार्थों के ग्रहणका प्रसंग उपस्थित होगा। शायद कहा जाये कि ज्ञान जिससे उत्पन्न होता है, उसीके आकारका अनुकरण करनेपर उसका ग्राहक होता है, केवल सारूप्य मात्रसे ग्राहक नहीं होता, तो प्रथम क्षण में 'नील' यह ज्ञान उत्पन्न हुआ। यह ज्ञान द्वितीय ज्ञानका जनक है किन्तु द्वितीय ज्ञान पूर्व क्षणवर्ती ज्ञानसे उत्पन्न होनेपर भी तथा तदाकार होनेपर भी पूर्वक्षणवर्ती ज्ञानका ग्राहक नहीं होता । . अतः उक्त कथन भी संगत नहीं है।
तथा, आकार ज्ञानसे भिन्न है अथवा अभिन्न है ? यदि भिन्न है तो ज्ञान निराकार ही रहा। यदि अभिन्न है तो ज्ञान और आकार में से कोई एक ही रहा । कथंचिद् भेद माननेपर जैनमतानुयायी होने का प्रसंग उपस्थित होगा। तथा यदि ज्ञान अपनेसे अभिन्न आकारको ही ग्रहण करता है तो 'पर्वत दूर है', 'मकान समीप है' इस प्रकारका व्यवहार नहीं होना चाहिए। शायद कहा जाये कि ज्ञान में अपना आकार देनेवाले पदार्थके दूर या समीप होनेके कारण ऐसा व्यवहार होता है, किन्तु दर्पण वगैरहमें ऐसा व्यवहार नहीं पाया जाता। अत: विचार करनेपर ज्ञानका अर्थाकार होना घटित नहीं होता । इसलिए 'जो जिसके आकार नहीं होता वह उसका ग्राहक भी नहीं होता' इत्यादि कथन अयुक्त है।
तथा जो यह आपत्ति की गयी है कि 'ज्ञानको निराकार माननेपर स्वरूपका भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा, वह भी उचित नहीं है। ज्ञानका आकार उसका स्वपर प्रकाशकत्व है न कि नीलादिपना। नीलादिपना तो अर्थका धर्म है । अतः स्वपर प्रकाशकत्व रूप आकारके साथ ज्ञान का प्रत्यक्ष होता ही है; क्योंकि 'मैं नीलको जानता हूँ' यह प्रतीति सभीको होती है। रह जाता है यह प्रश्न कि निराकार होनेपर ज्ञानोंमें भेद कैसे किया जायेगा? सो प्रत्येक ज्ञान प्रतिनियत अर्थका ग्राहक होता है। उसका यह स्वरूप ही एक ज्ञानसे दूसरे ज्ञानको भिन्न करता है। स्वगत धर्मकी अपेक्षासे ही पदार्थोंमें परस्पर भेद करना युक्त है, न न कि अन्यके धर्मकी अपेक्षासे । यदि अन्यके धर्मकी अपेक्षासे भी भेद किया जायेगा तो बड़ी गड़बड़ी उपस्थित होगी।
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