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________________ जैन न्याय उत्पन्न करती है, अर्थात् ज्ञानसे अर्थ प्रकट हो जाता है। और प्रत्येक प्राणीसे सुपरिचित यह अर्थ प्रकटनरूप फल बिना ज्ञानके हो नहीं सकता । अत: इस फलसे आत्मामें नित्य परोक्षज्ञानका अस्तित्व माना जाता है : कहा भी है - अप्रत्यक्षा नो बुद्धिः, प्रत्यक्षोऽर्थः, स हि बहिर्देशसंबद्धः प्रत्यक्षमनुभूयते ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छति बुद्धिम् ।' [ शाबर भा० १।१।५ ] हमारा ज्ञान अप्रत्यक्ष है और अर्थ प्रत्यक्ष है. क्योंकि बहिर्देशवर्ती अर्थका प्रत्यक्ष अनुभव होता है । अर्थका ज्ञान होनेपर अनुमानसे बुद्धिका ज्ञान होता है । जैसे जलका ज्ञान होनेपर उसमें प्रवृत्ति होती है । यदि प्रवृत्ति का विषय जल अज्ञात हो तो उसमें प्रवृत्ति हो नहीं सकती। अतः प्रवृत्तिको देखकर ही ज्ञानका अनुमान किया जाता है। प्रयोजनार्थी मनुष्य कभी प्रवृत्ति करता है, और कभी प्रवृत्ति नहीं करता। इसमें ज्ञानके सिवा उसकी प्रवृत्तिका अन्य कोई कारण नहीं है । जो अर्थ इष्टसाधक है, वह भी स्वभावसे ही प्रवृत्तिमें हेतु नहीं है, अन्यथा सर्वत्र उसमें प्रवृत्ति हुआ करे । अतः चूँकि प्रयोजन होनेपर भी मनुष्यकी अर्थमें प्रवृत्ति कदाचित् ही होती है, इसलिए अर्थके सिवा अन्य भी कोई इसका कारण है, जिसके होने पर अर्थमें प्रवृत्ति करनेकी योग्यता आती है, वह कारण ज्ञान है । अतः ज्ञान परोक्ष है । उत्तर-मीमांसकका उक्त मत जैनदर्शनको अभीष्ट नहीं है। उसका कहना है-जैसे मीमांसक आत्मा और फलज्ञानकी कर्म रूपसे प्रतीति नहीं होनेपर भी उनका प्रत्यक्ष होना मानता है, वैसे ही उसे प्रमाण रूपसे अभिमत करणज्ञानको भी प्रत्यक्ष मानना चाहिए; क्योंकि जैसे आत्माकी कर्तारूपसे और फल. ज्ञानकी फलरूपसे प्रतोति होती है, अतः वे प्रत्यक्ष हैं, उसी प्रकार ज्ञानकी कर्मरूपसे प्रतीति नहीं होनेपर भी करणरूपसे प्रतीति होती है, अतः उसे भी प्रत्यक्ष मानो। यदि करण रूपसे प्रतीयमान ज्ञानको करण हो मानते हो, प्रत्यक्ष नहीं मानते, तो कर्तारूपसे और फलरूपसे प्रतीयमान आत्मा और फलज्ञानको भी कर्ता और फल ही मानना होगा, न कि प्रत्यक्ष । दोनों पक्षोंमें आक्षेप और समाधान तुल्य हैं। मीमांसकोंका कहना है कि ज्ञानको कर्मरूपसे प्रतीति नहीं होती, इसलिए वह परोक्ष है। सो देखना यह है कि समस्त प्रमाणोंकी अपेक्षा ज्ञानकी कर्मरूपसे प्रतीति नहीं होती अथवा स्वरूपकी अपेक्षा कर्मरूपसे प्रतीति नहीं होती ? प्रथमपक्षमें तो ज्ञानका अस्तित्व ही दुर्लभ हो जायेगा; क्योंकि जो समस्त प्रमाणोंकी १. न्या० कु०, पृ० १७६-१८० । प्रमेय क० मा०, पृ० १२१-१२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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