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________________ ४४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन भद्रबाहु प्रथम का समय ईसा पूर्व ४ थी शती के मध्य का है। मूलाचार में कौटिल्य, आसुरक्ष, महाभारत, रामायण, रक्तपट (बौद्ध), चरक, तापस, परिव्राजक आदि के नामोल्लेख मिलते हैं।' किन्तु इन सबके बाद में विकसित शाखाओं-प्रशाखाओं आदि के नामोल्लेख नहीं मिलते। इससे लगता है कौटिल्य महाभारत, रामायण आदि का उस समय विशेष पठन-पाठन प्रचलित था। इनमें कौटिल्य तो ३२१ से ३०० वर्ष ईसा पूर्व के बीच हुए हैं । बौद्ध परम्परा को रक्तपट से ही सूचित किया है। इस मत की बाद में विकसित अनेक शाखाओं का उल्लेख न होने से लगता है कि मूलाचारकार के समय में इन सबका उदय नहीं हुआ होगा। यदि उपर्युक्त ग्रन्थों के आधार पर लिखे गए अन्य ग्रन्थ तथा शाखाओं आदि का सद्भाव उस समय रहता तो मूलाचारकार इनका भी उल्लेख अवश्य करते । जैन लक्षणावली भाग २ की ग्रन्थकारानुक्रमणिका में वट्टकेर का समय विक्रम की दूसरी शती माना है। अन्य प्रमाणों का उल्लेख तो मूलाचार के कर्ता विषयक विवाद एवं उसकी समीक्षा के अन्तर्गत किया जा चुका है। इस प्रकार मूलाचार की मौलिकता और प्राचीनता सिद्ध हो जाती है।। ___ आचार्यवर्य वट्टकेर : व्यक्तित्व और कृतित्व : उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन के प्रसंग में मूलाचार तथा इसके रचयिता आचार्य वट्टकेर पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। वस्तुतः मूलाचार अपने विषय का एक अप्रतिम ग्रन्थ है । इसके रचयिता को वसुनन्दि ने आचार्यवर्य कहा है। वर्तमान में इनकी यही एक मात्र कृति उपलब्ध है । पर मूलाचार के अध्ययन से ज्ञात होता है कि 'सारसमय' नामक ग्रन्थ भी इनकी अन्य कृति भी हो सकती है । जिसका मूलाचार में भी इन्होंने उल्लेख किया है। पर यह अभी तक अनुपलब्ध है । मूलाचार के अतिरिक्त सारसमय ग्रन्थ का अन्यत्र उल्लेख नहीं पाया जाता इससे प्रतीत होता है कि सारसमय ग्रन्थ भी आ० वट्टकेर की रचना हो सकती है। वैसे वृत्तिकार आ० वसुनन्दि ने इसकी पहचान व्याख्याप्रज्ञप्ति से की है। पर गति-अगति नामक जिस विषय के लिए वट्टकेर ने सारसमय ग्रन्थ को स्वयं की रचना से उल्लिखित किया है वह विषय पंचम अंगरूप श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित व्याख्या-प्रज्ञप्ति १. वही, ५।६०,६२. २. इतिश्रीमदाचार्यवर्यवट्टकेरिप्रणीतमूलाचारे श्रीवसुनंदिप्रणीतटीकासहिते द्वाद शाधिकारः । -मूलाचार भाग २ ,१२।२०६, पृ० २२४. ३. एवं तु सारसमए भणिदा दु गदीगदी मया किंचि । णियमादु मणुसगदिए णिबुदिगमणं अणुण्णादे ।। मूलाचार १२११४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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