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________________ प्रास्ताविक : ४५ में नहीं मिलता । इससे यही सिद्ध होता है कि सारसमय नामक कृति थी, जिसमें उन्होंने “एवं सु सारसमए भणिदा दु गदीगदी मया किंचि"-अर्थात् इसी प्रकार का गति-अगति का कुछ वर्णन मेरे (वट्टकेर के द्वारा) सारसमय नामक ग्रन्थ में किया गया है । इस तरह आचार्य वट्टकेर ने इसी विषय के कथन का संकेत अपने सारसमय नामक ग्रन्थ में करके उसका मूलाचार में उल्लेख किया। मूलाचार के गहन अध्ययन से आचार्य वट्टकेर का बहुश्रुत व्यक्तित्व प्रतिभासम्पन्न एवं उत्कृष्ट चारित्रधारी आचार्य के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होता है । ग्रन्थ का अध्ययन करते-करते ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य बट्टकेर मूलसंघ की परम्पराओं के पोषक एक महान् दिगम्बर आचार्य थे जिन्होंने अपने अपूर्व संयमी और दीर्घ तपस्वी जीवन की सम्पूर्ण अनुभूतियों का यत्र-तत्र सचित्र चित्रण किया है। इनके नाम आदि के आधार पर यह सिद्ध होता है कि ये दक्षिण भारत (बेट्टकेरी स्थान) के निवासी थे। मूलाचार नाम से भी सिद्ध होता है कि ये दिगम्बर परम्परा के मूलसंघ में महान् एवं प्रमुख आचार्य थे। इस संघ के प्रथम आचार्य कुन्दकुन्द और इनके बाद आचार्य वट्टकेर हुए । इसी मूलसंघ के श्रमणों के आचार का प्रतिपादक होने से इस ग्रन्थ का नाम मूलाचार और उनके संघ का नाम मूलसंघ प्रचलित हुआ। ____मूलाचार अपनी विषय-वस्तु और भाषा आदि की दृष्टि से तृतीय शती के आसपास का सिद्ध होता है । अतः आचार्य वट्टकेर का समय भी यही माना जा सकता है। इन्होंने मूलाचार का प्रणयन एक निश्चित रूपरेखा को दृष्टि में रख कर किया। इस एक कृति ने ही उन्हें अमर बना दिया क्योंकि सैकड़ों, हजारों वर्षों से आज तक समस्त श्रमणों को यह ग्रन्थ दीपक का कार्य करता आ रहा है। यह एक श्रमणाचार विषयक ऐसा संविधान है जिसमें सच्चे श्रामण्य की सर्वांगपूर्ण रूपरेखा प्रस्तुत की गयी है। इसके आधार पर श्रमण रत्नत्रय पाकर मोक्ष लक्ष्मी का वरण कर सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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