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प्रास्ताविक : ४३
इसी प्रकार कवि वृन्दावनदास (वि० सं० १८४२) को मूलाचार के पंचम अधिकार की वैयावृत्ति संबंधी एक गाथा' के विषय में शंका हुई थी, जिसका समाधान करने के लिए उन्होंने दीवान अमरचन्द जी को जयपुर पत्र लिखा था।
मूलाचार के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि पांचवे श्रुतकेवली आ० भद्रवाह के समय जो दुभिक्ष पड़ा था, उसके प्रभाव से साधुओं के आचार-विचार में जो शिथिलता आयी, उसे देखकर ही मानो आ० वट्टकेर ने श्रमणों को अपने आचार-विचार एवं व्यवहार आदि की विशुद्धता का समग्र एवं व्यवस्थित ज्ञान कराने हेतु बारह अंग-ग्रन्थों में अपने सामने उपस्थित प्रथम अंग ग्रन्थरूप मूल आचारांग का उद्धारकर प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की है। जैसाकि आ० वसुनन्दि ने भी इसकी आचारवृत्ति तथा आ० सकलकीर्ति ने मूलाचार प्रदीप नामक ग्रन्थ के प्रारम्भिक मंगलाचरण की भूमिका में भी सूचित किया है ।। आ० वीरसेन रचित षट्खण्डागम की धवला टीका में भी मूलाचार को आचारांग नाम से उल्लिखित किया ही है। इसी कारण इस ग्रन्थ का नाम मूलाचार पड़ा और तदनुसार श्रमणसंघ का प्रवर्तन कराने से उनके संघ का नाम भी मूलसंघ प्रचलित ज्ञात होता है क्योंकि शिथिलाचार वृत्ति को रोकने हेतु ग्रन्थकार ने पदे-पदे श्रमणों को सावधान किया है तथा वैयावृत्य के प्रसंग में उक्त दुर्भिक्ष का संकेत भी किया है जिसमें कहा है कि दुर्भिक्षादि से प्रभावित और पीड़ित श्रमणों की वैयावृत्य करना चाहिए। ग्रन्थकार ने एकाकी विहार का दृढ़ता से निषेध करते हुए कहाकि मेरा शत्रु भी हो तो वह भी एकाकी विहारी न बने । वस्तुतः दुर्भिक्ष के समय संघ टूटकर यत्र-तत्र बिखर रहा था अतः ग्रन्थकार को कड़े शब्दों में एकाकी विहार का निषेध करना पड़ा। वैसे भी एकाकी विहार में प्रत्येक समय संयम विराधना की सम्भावना बनी रहती है । यदि दुर्भिक्ष के कारण बढ़ रहे शिथिलाचार को लक्ष्य कर मूलाचारकार ने श्रमणों को अपने संयम में दृढ रहने का उपदेश दिया है तो इस आधार पर भी मूलाचार की प्राचीनता सिद्ध हो जाती है क्योंकि पंचम श्रुतकेवली
१. सेज्जोग्गासणिसेज्जो तहोवहिपडिलेहणादि उवग्गहिदे ।
आहरोसहवायण विकिंचणं वंदणादीहिं । मूलाचार ५।१९४. २. जैन साहित्य और इतिहास पृ० ५५१. ३. देखिए-मूलाचार (मूलगुणाधिकार) के आरम्भ में वृत्तिकार की भूमिका. ४. अद्धाणतेणसावद रायणदीरोधणासिवे ओमे ।
वेज्जावच्चं वुत्तं संगहसारक्खणोवेदं ।। मूलाचार ५।१९५. ५. वही, १०१६८-६९.
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