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४२: मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
छठी-सातवीं शती के आचार्य यतिवृषभ ने भी तिलोयपण्णत्ति में मूलाचार का उल्लेख किया है। उन्होंने इसके आठवें अधिकार में जिन देवियों की आयु विषयक मतभेदों का उल्लेख किया है उनके उल्लेख पर टिप्पणी करते हुए पं० हीरालालजी सि० शा० ने लिखा है कि देवियों की आयु से संबंधित मतों में जहां मूलाचारकार ने केवल दो मतों का उल्लेख किया है वहीं तिलोयण्णत्तिकार ने चार मतों का उल्लेख किया है इससे सिद्ध होता है कि तिलोयपण्णत्ति के रचना-काल से मूलाचार का रचनाकाल इतना प्राचीन है कि मूलाचार की रचना होने के पश्चात् और तिलोयपण्णत्ति की रचना होने के पूर्व तक के बीच के काल में अन्य और भी दो मतभेद उठ खड़े हुए थे, जिनका संग्रह करना तिलोयपण्णत्तिकार ने आवश्यक समझा।
पं० आशाधर जी ने अनगार धर्मामृत टीका (वि० सं० १३००) में 'उक्तं च मूलाचारे'-इस वाक्य से मूलाचार की निम्न गाथा (७।१८) उद्धृत की है
सम्मत्तणाणसंजमतवेहिं जं तं पसत्थसमगमणं । समयंतु तं तु भणिदं तमेव सामाइयं जाणं ॥ अनगार धर्मामृत ६०५ ।
मेघचन्द्र विद्यदेव के शिष्य एवं पुत्र आ० वीरनन्दि (वि० १२ वीं शती) ने अपने ग्रन्थ आचारसार में मूलाचार की गाथाओं का प्रायः अर्थशः पद्यानुवाद करके प्रस्तुत किया है। भट्टारक सकल कीर्ति (वि० १५ शती) ने अपने मूलाचारप्रदीप में मूलाचार की ही गाथाओं को आधार बनाकर संस्कृत में श्लोकबद्ध रूप में श्रमणाचार का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया।
इन सब प्रमाणपूर्ण तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि मूलाचार एक मौलिक, प्राचीन और प्रामाणिक ग्रंथ है जो कि दिगम्बर परम्परा में आचारांग सूत्र के रूप में मान्य है। श्रमण एवं श्रावक समाज में यह ग्रंथ सदा ही अत्यन्त पूज्य माना जाता रहा है। इसका एक उदाहरण भी प्राप्त होता है । वि० सं० १४९३ में दिल्ली के साहू फेरू की धर्मपत्नी ने अपने स्वामी से अनुरोध किया कि श्रुत पञ्चमी का उद्यापन कराया जाये । यह सुनकर फेरू अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने मूलाचार नामक ग्रन्थ श्रुत पञ्चमी के निमित्त लिखवाकर मुनि धर्मकीर्ति के लिए अर्पित किया। धर्मकीर्ति के स्वर्ग चले जाने पर उक्त ग्रन्थ यम-नियमों में निरत तपस्वी मलयकीर्ति को सम्मानपूर्वक अर्पित किया गया। मलयकीति ने इस प्रति में उपर्युक्त विवरण-विषयक प्रशस्ति भी लिखी।
१. मूलाचारे इरिया एवं निउणं णिरूवेन्ति । २. अनेकान्त, वर्ष १२, किरण ११. ३. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा-भाग ३. पृ० ४२९.
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