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प्रास्ताविक : ४१
आचारांग के नाम से उल्लिखत करते हुए मूलाचार के पंचम अधिकार की गाथा संख्या २०२ इस प्रकार उद्धृत की है-' तह आयारंग वि बुत्तं
पंचत्थिकाय छज्जीवणिकाये कालदव्वमण्णे य ।
आणागेज्झे भावे आणाविचयेण विचिणादि ॥६॥ मूलाचार के पंचाचाराधिकार की इस गाथा के उल्लेख से ज्ञात होता है कि आ० वीरसेन (ई० ८-९ वीं शती) के समय मूलाचार आचारांग नाम से प्रसिद्ध था इससे मूलाचार की प्राचीनता और प्रामाणिकता स्वयं प्रमाणित हो जाती है। आचारांग नाम से मूलाचार के नामोल्लेख द्वारा यह भी सिद्ध है कि उस समय मूलाचार का पठन-पाठन काफी प्रचलित था। आचारांग के इस उल्लेख से यह प्रश्न उठ सकता हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित आचारांग ही वह हो किन्तु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि तत्त्वार्थवार्तिक में भी आचारांग के स्वरूप कथन तथा प्रश्नोत्तर रूप में (कधं चरे कधं चिट्ठ०........। जदं चरे जधं चिट्टे०........ मूलाचार १०११२१-२२) जो गाथाएँ आयी हैं वे श्वेताम्बर परम्परा के आचारांग में नहीं किन्तु दशवकालिक में मिलती हैं। इससे भी सिद्ध होता है है कि दिगम्बर परम्परा में आचारांग के नामोल्लेख से तात्पर्य प्रस्तुत मूलाचार ही है। आचार्य वसुनन्दि ने इसके मंगलाचरण की वृत्ति में तथा आचार्य सकलकीर्ति ने अपने मूलाचार प्रदीप' ग्रन्थ के प्रारम्भ में यह उल्लेख किया है कि आचारांग ग्रन्थ का उद्धार कर प्रस्तुत मूलाचार ग्रन्थ की रचना की गई है।
मूलाचार में एषणा समिति के स्वरूप कथन में एषणा को केवल आहार शुद्धि के लिए प्रयोग किया है। उसमें कहा है जो साधु उद्गमादि ४६ दोषों से शुद्ध, कारण सहित, नवकोटि से विशुद्ध, शीतोष्णादि भक्ष्य पदार्थों में राग-द्वषादि रहित, समभावपूर्वक भोजन व आहार ग्रहण करना अत्यन्त निर्मल एषणा समिति है। यह इसका प्राचीन और मूलस्वरूप है जो कि बाद में विकृत हो गया और कुछ परम्पराओं में पिण्डषणा के साथ वस्त्र, पात्र आदि को भी सम्मिलित कर लिया।
१. षट्खण्डागम धवला टीका जीवस्थान कालानुगनिर्देश प्ररूपणा १.५.१
पुस्तक ४. पृ० ३१६. सम्पादक डॉ० हीरालाल जैन, प्रका-श्रीमन्त सेठ
शिताबराय लक्ष्मीचंद जैन साहित्योद्धारक फण्ड, अमरावती १९४२.. २. मूलाचार १।१३. नियमसार-६३.
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