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________________ ४० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन मलाचार की मौलिकता और प्राचीनता : आज से कुछ दशाब्धि पूर्व तक मूलाचार की मौलिकता में संदिग्धता का प्रमुख कारण दिगम्बर जैन साहित्य के प्रमुख षट्खण्डागम, कसाय पाहुड आदि जैसे प्राचीन और प्रामाणिक सैद्धान्तिक ग्रन्थों एवं उनकी टीकाओं का पूर्ण प्रकाश में न आना था, किन्तु जैसे-जैसे महत्त्वपूर्ण और प्राचीन प्रमुख ग्रन्थ तथा उनमें उल्लिखित प्रमाण प्रकाश में आये तथा आते जा रहे हैं वैसे-वैसे मूलाचार की प्राचीनता और मौलिकता के प्रति मनीषियों की आस्था में वृद्धि होती जा रही है । कुछ विद्वानों ने मूलाचार के विषय में खोजपूर्ण निबन्ध भी प्रकाशित किये हैं जिनमें मूलाचार की मौलिकता और प्राचीनता का समर्थन करते हुए उसे आचार्य वट्टकेर रचित ग्रन्थ सिद्ध किया है। विशेष उल्लेखनीय यह भी है कि कुछ विद्वान् पहले इसे संग्रहग्रन्थ या आचार्य कुन्दकुन्द की कृति होने की बात अपने लेखों में लिखते थे। किन्तु वे ही विद्वान् अब सिद्धान्त तथा अन्य ग्रन्थों में मूलाचार को आचाराङ्ग जैसे महत्त्वपूर्ण उल्लेखों एवं मान्यताओं तथा अन्यान्य तथ्यों को देखने के बाद अपनी धारणायें बदल कर मूलाचार को मौलिक ग्रन्थ मानने लगे हैं । इस सन्दर्भ में पं० परमानन्द जी ने “मूलाचार संग्रह ग्रन्थ न होकर आचाराङ्ग के रूप में मौलिक ग्रन्थ हैं" नामक विस्तृत लेख में मूलाचार को संग्रह ग्रन्थ के रूप में अपनी पूर्व मान्यता का खण्डन करते हुए लिखा है कि मैंने "मूलाचार संग्रह ग्रन्थ है" लेख लिखा था। उस समय मूलाचार की कुछ गाथायें आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होने से मैंने समझ लिया था कि ये गाथायें उन्होंने संग्रहीत की हैं । साथ ही मूलाचार के बारहवें पर्याप्त अधिकार को असम्बद्ध भी लिख दिया था । किन्तु तुलनात्मक अध्ययन करते हुए मैंने मूलाचार और उसकी टीका "आचारवृत्ति" का गहरा मनन किया और अधिक वाचन-चिन्तन के फलस्वरूप मेरा यह मत स्थिर नहीं रहा । अब मेरा दृढ़ निश्चय हो गया है कि मूलाचार संग्रह ग्रन्थ न होकर एक व्यवस्थित प्राचीन मौलिक ग्रन्थ है। इस प्रकार प्रमुख सैद्धान्तिक ग्रन्थों तथा उनकी टीकाओं में मूलाचार की विविध गाथाएँ प्रमाण-स्वरूप उद्धृत होने से एवं विद्वानों के समक्ष तथ्य उपस्थित होने पर मूलाचार को मौलिक ग्रन्थ स्वीकृत किया है। आचार्य वीरसेन ने षट्खण्डागम की धवला टीका (८१६६०) में मूलाचार को १. अनेकान्त वर्ष १२ किरण ११, अप्रेल १९५४, पृष्ठ ३५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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