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________________ प्रास्ताविक : ३९ तिलोयपण्णत्ति से पूर्व का सिद्ध हो जाता है, जबकि सन्मति प्रकरण और तिलोयपण्णत्ति लगभग समकालीन रचनाएँ हैं। अतः सन्मति प्रकरण की गाथाओं को मूलाचार में लिए जाने की सम्भावना का प्रश्न ही नहीं उठता। ___आवश्यकनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति की कुछ गाथाएँ मूलाचार की गाथाओं के समान होने से भी इन गाथाओं को मूलाचार में संग्रहीत किये जाने की बात पर पं० परमानन्द जी ने लिखा है कि-यह सुनिश्चित है कि वर्तमान नियुक्तियों का निर्माण विक्रम की छठी शताब्दी में हुआ है । उनके कर्ता द्वितीय भद्रवाह हैं जो वराहमिहिर के भाई थे। इससे स्पष्ट है कि मूलाचार उन नियुक्तियों से काफी पूर्व की रचना है और जैसा कि पहले कहा जा चुका है भ० महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा जब दो भागों में विभक्त हुई, अतः उस समय समागत श्रुत (आगम) दोनों परम्पराओं के आचार्यों एवं साधुओं को कंठस्थ था। अतः दोनों परम्पराओं में प्रसंगानुसार उसका उपयोग अपनी-अपनी रचनाओं में किया। ऐसी अवस्था में आदान-प्रदान की बात समुचित नहीं जान पड़ती। इस प्रकार उपर्युक्त समीक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि मूलाचार न तो कुन्दकुन्दाचार्य की कृति ही सिद्ध होता है और न संग्रह ग्रन्थ, अपितु यह वट्टकेराचार्य की एक मौलिक एवं प्राचीन कृति है । हाँ, वट्टकेर यह नाम केवल उनके जन्मभूमि वाले नगर का सूचक होने से दक्षिण की परम्परानुसार ही नाम के रूप में प्रसिद्ध हो गया और बाकी नाम आज भी विस्मृत है । वट्टकेराचार्य का उल्लेख किन्ही अन्य गुर्वावलियों, अभिलेखों या ग्रन्थ प्रशस्तियों में मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ। फिर भी वट्टकेराचार्य का वृत्तान्त, उनकी गुरु परम्परा तथा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व विषयक विवरण अत्यन्त गहन अन्वेषणों की अपेक्षा रखते हैं। वैसे मूलाचार की कुछ गाथाओं को लेकर विभिन्न विद्वानों ने गुत्थियाँ निर्मित की है। इनमें ज्यादा उलझने की अपेक्षा उपलब्ध सूत्रों के आधार पर उस परम्परा का प्राचीनतम स्रोत खोजने का प्रयत्न किया जाना अपेक्षित है जो तीथंकर महावीर की साधना और उनके श्रमण संघ की आचार संहिता से सीधा जुड़ सके । कर्तृत्व आदि के विषय में तो जैसे-जैसे प्राचीन साहित्य, अभिलेख आदि स्रोतों के गहन अध्ययन की प्रवृत्ति बढ़ेगी वैसे-वैसे तथ्य सामने आते जायेंगे। १. वीर निर्वाण स्मारिका, जयपुर, १९७५, पृ० २।६६-६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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