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________________ ३४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन तुम्बलूराचार्य कहलाये, वैसे ही मूलाचार के कर्ता वटुंगेरी या वेट्टेकेरी ग्राम के ही रहने वाले होंगे अतः वट्ट केरि कहलाने लगे । वट्ट केरि नाम उनके गाँव का बोधक होना चाहिए । कन्नड़ भाषा के बेट्टगेरि कृष्णशर्मा नाम के एक सुप्रसिद्ध कवि भी हैं। जो गदग (धारवाड़) के पास बेट्टगेरि या वट्टकेरी ग्राम के रहने वाले हैं । अतः मूलाचार के कर्ता का मूलनाम क्या था यह भूल गये, मात्र वट्टकेरि इतना नामांश बचा रहा । दक्षिण में बेट्ट का अर्थ छोटी पहाड़ी या पर्वत तथा 'गेरी या केरी' का अर्थ गली या मुहल्ला तथा केरे तालाब के अर्थ में प्रयुक्त होता है । बेलगाँव और धारवाड़ जिले में इस नाम के अब भी गाँव मौजूद हैं। श्रवण वेलगोल में एक मुहल्ले का नाम बेट्टगेरि है। कारकल के हिरयंगडि वसति के पद्मावतीदेवी मंदिर के एक स्तम्भ पर शक संवत् १३९७ (वि०सं० १५३२) का एक कन्नडी शिलालेख भी है। इसमें बेट्टकेरि गाँव का दो बार नामोल्लेख है। यह कारकल के आसपास ही कहीं होना चाहिए । अतः मेरा अनुमान है कि मूलाचार के कर्ता वट्टकेरि गाँव के निवासी होने के कारण वट्ट केर कहलाने लगे और इनका मूलनाम क्या था, यह लोग भूल गये। आदरणीय प्रेमीजी ने इसी लेख को आगे बढ़ाते हुए “जैन साहित्य और इतिहास" में लिखा है कि मूलाचार की कुछ हस्तलिखित प्रतियों में कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत लिखा हुआ मिल जाने से वट्टकेरि को कुन्दकुन्दाचार्य का विशेषणसिद्ध करने का प्रयत्न किया गया-वट्टक-वर्तक-प्रवर्तक, इरा-गिरा-वाणी आदि । परन्तु डा० ए० एन० उपाध्ये के शब्दों में-'यह सब तर्क और शब्द कौशल मात्र है । वट्केरि शब्द संस्कृत है या नहीं, जब इसी में सन्देह है तब उसकी संस्कृत व्युत्पत्ति देकर वृत्तिकार से वट्टर सिद्ध करना केवल आग्रह मात्र है। पं० कैलाशचन्द जी शास्त्री ने लिखा है-यदि मूलाचार के टीकाकार आचार्य वसुनन्दि ने अपनी टीका में उसके रचयिता का नाम वट्टकेराचार्य न दिया होता तो मूलाचार को कुन्दकुन्दकृत मानने में शायद कोई विवाद पैदा न हुआ होता। १. साउथ इंडियन इन्स्क्रिप्शन्स, जिल्द, ७. २. पुलिसेटिबलिय बेट्टकेरिय ललितंण्णभागे""। "बागिसेटियबलिय बेट्टकेरि य देवरू भागे...॥ -जैन साहित्य और इतिहास पृ० ५४९ से उद्धृत । ३. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १२, किरण, १, जुलाई १९४५. तथा जैन साहित्य और इतिहास-पृ० ५४९. ४. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ५४९-५५०. ५. पुरातनवाक्य सूची, पृ० १८-१९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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