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२४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
मूलाचार और गोम्मटसार
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ( १०-११ वीं शती) द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड' में भी मूलाचार को अनेक गाथाएँ ज्यों की त्यों मिलती हैं । यथा -- २२१, २२३, २२६, ३२८, ३१५, ३१६, १०३४, १०३५, १०३६, १०३७, १०३८, १०३९, १०४०, ११०२, ११०३, ११४८, ११५१ ये मूलाचार की गाथाएँ गोम्मटसार जीवकाण्ड में क्रमशः ११३, ११४, ८९, २२१, २२४, २२५, २५, ३६, ३७, ३८, ४०, ४१, ४२, ८१, ८२, ४२९, ४२६, पाई जाती हैं ।
मूलाचार का गति - अगति विषयक वर्णन अमृतचन्द्राचार्य (१० वीं शती के उत्तरार्द्ध) विरचित तत्त्वार्थसार नामक ग्रन्थ में अर्थतः ज्यों का त्यों पाया जाता हैं । यथा— मूलाचार की गाथा संख्या १९६४ एवं १९६५ की छायारूप तत्वार्थसार के २।१५४, २।१५७ में पाई जाती हैं ।
मूलाचार और प्रभाचन्द्राचार्य
प्रमेयक मलमार्तण्ड आदि महान् ग्रन्थों के लेखक प्रभाचन्द्राचार्य (११ वीं शती) ने अपने तत्त्वार्थवृत्तिपद विवरण (सर्वार्थसिद्धि व्याख्या) में मूलाचार के बारहवें पर्याप्त अधिकार की ९३, १०७ तथा १११ वीं गाथायें उद्धृत की हैं।
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इसी प्रकार मुलाचार तथा उसकी गाथाओं का उल्लेख दिगम्बर परम्परा में अन्यान्य ग्रन्थों में देखने को मिलता है ।
मूलाचार तथा श्वेताम्बर ग्रन्थ
जैसा कि पहले कहा गया कि दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में श्रमणाचार विषयक विपुल साहित्य है । वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी भाषा के आगम साहित्य को तथा शौरसेनी प्राकृत भाषा के मूलाचार को स्पष्ट रूप में जैन धर्म की दोनों परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करने वाला माना है । अर्धमागधी आगमों में श्रमणाचार के जिन नियमों और उपनियमों को निबद्ध किया गया है तथा मूलाचार में श्रमण की जो आचार संहिता निबद्ध है उसकी तात्त्विक और आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा में कोई विशेष अन्तर प्रतीत नहीं होता । अहिंसा के जिस मूल धरातल पर श्रमणाचार का महाप्रासाद इस अर्धमागधी आगम साहित्य में निर्मित किया गया है, उसी अहिंसा के मूल धरातल पर मूलाचार में
१. अनेकान्त, वर्ष ३, किरण ४, पृष्ठ ३०१ ( फरवरी १९४० ) ।
२. सर्वार्थसिद्धि : द्वितीय संस्करण परिशिष्ट संख्या - २. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी द्वारा प्रकाशित एवं पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सम्पादित |
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