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प्रास्ताविक : २३ १६६९, ४११, ४१२, १८२५, १८३५, १८४७, १८४८, २६०, ३४, ११८५, ११८६, ११७, ११८, ११९१, ११९२, ११९३, ११९४, ११९५, १२००, १२०१, १२०२, १२०३, ११४८, ११८८, ११८९, १२०५, १२०६, १२०७, १२१०, १२११, ७७०, १२१३, २०८, २१३, २१४, २३६, ११४, ११५, ११८, ११९, १२०, १२१, १२२, १२३, १२४, १२५, १२६, १२८, १२९, १३०, १३१, ३०५, ३०६, १७०३, १७१२, १७१३, १७१५, १६७०, ७७०, २८९, ८०, ७०, १०४, ५६२ ।
इस प्रकार मूलाचार और भगवती आराधना की अनेक गाथाएँ परस्पर ज्यों को त्यों मिलती हैं। किन्तु कई ऐसी भी गाथाएं हैं जो बहुत कम पाठभेद के साथ हैं । यथामूलाचार अच्चेलक्कुसियसेज्जाहररायपिण्ड किरियम्मं ।
वद जेट्ठ पडिक्कमणं मासं पज्जो समणकप्पो ॥१०।१८।। भ० आ० आचेलक्कुद्दे सियसेज्जाहररायपिंड किरियम्मे ।।
वद जेठ्ठपडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो ॥४२१।। मूलाचार
एयग्गेण मणं णिरंभिऊण धम्म चउन्विहं झाहि ।
आणापायविवायविचओ य संठाणविचयं च ।।५।२०१॥ भ० आ० एयग्गण मणं रुभिऊण धम्म चउन्विहं झादि ।
आणापायविवागं विचयं संठाणविचयं च ॥१७०८।। इस प्रकार और भी अनेक गाथाएँ थोड़े बहुत पाठभेद के साथ दोनों ग्रन्थों में पाई जाती हैं । अन्य समान गाथाएँ क्रमशः इस प्रकार हैं
मूलाचार-११८, १६०, ३१६, ३१८, ३२५, ३३०, ३५२, ३७०, ३७१, ३८४, ३९४, ३९५, ३९७, ३९९, ६१८, ९७०। ये गाथायें भगवतीआराधना में क्रमशः निम्नलिखित गाथाओं के समान हैं.-६८२, ४१०, ११९६, ११९७, ११९९, १२०४, २१५, ११६, ११७, १२७, ११८४, १७०२, १७०४, १७११, ५६१, १०७। मूलाचार और सर्वार्थसिद्धि ___ आचार्य देवनन्दि-पूज्यपाद (ईसाकी छठी शती) ने अपने सर्वार्थसिद्धि नामक ग्रन्थ के अध्याय २ सूत्र ३२ पृष्ठ ३२४ एवं अध्याय २ सूत्र ३ पृष्ठ ७३६ में मूलाचार के पांचवें अधिकार की गाथा संख्या क्रमशः २९ एवं ४७ उद्धृत की हैं। १. सर्वार्थसिद्धि : द्वितीय-संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सम्पादक एवं
अनुवादक पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री ।
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