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१८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
किया गया है। आर्यिका के लिए "विरती' तथा मुनि के लिए 'विरत' शब्द का भी प्रयोग किया है। मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविक रूप चतुर्विध संघ का उल्लेख है। इसमें आयिका संघ का भी स्पष्ट उल्लेख है। आयिकाओं के अनेक गुणों से संपन्न गणधरों आदि का वर्णन है जो आयिकाओं को दीक्षा और उपदेश देते थे। इस प्रकार इसमें स्त्री दीक्षा का मात्र समर्थन ही नहीं अपितु उनके आचार का प्रतिपादन भी मिलता है। जो दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में वृष्टिगोचर नहीं होता।
कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के तृतीय चारित्राधिकार में श्रमणाचार विषयक संक्षिप्त किन्तु सारपूर्ण विवेचन किया ही है अतः पुनः अपनी धारा को मोड़ देकर मूलाचार की अलग से रचना की संभावना भी उचित नहीं जान पड़तो। क्योंकि मूलाचार के कुछ स्थलों पर कुन्दकुन्द सम्मत विषय नहीं मिलते। जैसे-मूलाचारकार ने एषणा, निक्षेपादान, ईर्या-ये तीन समितियां तथा मनोगुप्ति और आलोक्यभोजन-ये पाँच अहिंसा महाव्रत की भावनायें मानी है। जबकि कुन्दकुन्द ने चारित्रपाहुड में वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्या, आदान-निक्षेपण एवं एषणा समिति-ये पाँच भावनायें मानी हैं . इसमें वचनगुप्ति भी स्वीकृत की है तथा आलोक्य भोजन को ही एषणा समिति का अंग माना गया है। जबकि मूलाचार में वचनगुप्ति स्वीकृत नहीं की तथा एषणा समिति और आलोक्यभोजन को अलग-अलग माना है। अन्य महावतों की भावनाओं में भी अल्पाधिक अन्तर है ।
इस प्रकार दोनों में अन्यत्र भी अल्पाधिक अन्तर दिखाई देता है । वैसे ये अन्तर सैद्धान्तिक मतभेद में विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। फिर भी कुन्दकुन्द जैसे समर्थ आचार्य एक ही विषय को दो जगह भिन्न-भिन्न क्यों कहेंगे ? अतः उपर्युक्त असमानताओं को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि मूलाचार कुन्दकुन्द की रचना नहीं हो सकती।
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१. णो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयहि चिट्ठदु-मूलाचार ४.१८०, १०.६१ २. वही ५.६६ ३. एषणाणिक्खेवादा णिरिया समिदी तहा मणोगुत्ती ।
आलोयभोयणंपि य अहिंसाए भावणा पंच ।।-मूलाचार ५११४० वयगुत्ती मणगुत्ती इरिया समिदी सुदाणणिक्खेवो । अवलोयभोयणाए अहिंसए भावणा होति ।।-चारित्त पाहुड ३२
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