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________________ प्रास्ताविक : १७ मूलाचार और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में असमानता : ___ उपर्युक्त तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि मूलाचार और कुन्दकुन्द द्वारा रचित ग्रन्थों में कुछ समानतायें अवश्य हैं किन्तु मूलाचार और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के गहन अध्येता विद्वान् मूलाचार को कुन्दकुन्द द्वारा रचित नहीं कह सकते । वैसे कुन्दकुन्द उसी मूलसंघ के प्रधान आचार्य थे जिस परम्परा में इनके पश्चात् आचार्य वट्ट केर हुए जिन्होंने उसी परम्परा के पोषक श्रमणों के लिए आचार-व्यवहार का एक सच्चा एवं सुव्यवस्थित संविधान के रूप में मूलाचार लिपिबद्ध किया, और मूलसंघ की अविच्छिन्न तथा उच्च परम्परा का साक्षात् दर्शन कराने वाले अपने ग्रन्थ का नाम मूलाचार रखा । वट्टकेर कुन्दकुन्द के पश्चात्वर्ती थे और दोनों एक ही परम्परा के पोषक रहे हैं । अतः मूलाचार में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का प्रभाव कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। और यह भी तथ्य है कि परम्परा से कुछ ऐसी श्रुत-सम्पदा विद्यमान थी जिसे बाद के प्रायः सभी आचार्यों ने यथायोग्य ग्रहण की होगी अतः कुछ साम्यता के आधार पर एक दूसरे के कर्तृत्व का खण्डन करना या किसी ग्रन्थ को संग्रह ग्रन्थ कहना योग्य नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं और मूलाचार के अध्ययन से दोनों में निम्नलिखित अन्तर स्पष्ट दिखलाई देते हैं । जैसे आचार्य कुन्दकुन्द के प्रत्येक ग्रन्थ की भाषा में जहाँ प्रांजलता प्रौढ़ता और प्रवाह का दर्शन होता है वहाँ मूलाचार में कुन्दकुन्दाचार्य जैसी भाषा का प्रयोग कहीं-कहीं ही दिखाई देता है । ___ आचार्य कुन्दकुन्द की कृतियों का मुख्य प्रतिपाद्य विपय उच्च आध्यात्मिकता है। भेद-प्रभेदों की विस्तृत गणना, स्वर्ग-नरक का विस्तृत वर्णन, आयु आदि अर्थात् प्रथमानुयोग, करणानुयोग के विषयों के दर्शन शायद ही कहीं दिखाई दें। किन्तु मूलाचार के पर्याप्ति अधिकार में इन्हीं सबका विस्तृत वर्णन है। मूलाचार के समयसाराधिकार की आचार्य कुन्दकुन्द विरचित समयसार में छाया तक दिखाई नहीं पड़ती। दोनों के प्रतिपाद्य विषय बहुत कुछ भिन्न हैं । आचार्य कुन्दकुन्द के सूत्रप्राभृत के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उन्होंने स्त्रीदीक्षा का स्पष्ट समर्थन नहीं किया अपितु यही कहा है कि उनके शरीरावयवों में कुछ ऐसे दोष होते हैं जिनके कारण उनको दीक्षा नहीं दी जा सकती। जबकि मूलाचार में आर्यिकाओं की आचार-पद्धति का अच्छा विवेचन १. लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहि कक्खदेसेसु । भणिओ सुहमो काओ तासिं कह होइ पव्वज्जा ।। -लिंग पाहुड २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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