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१४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन है । इसमें २ और १२६ वी गाथा अधिक है। दशम अधिकार में ३६, ११६, १२०, १२१, १२२, १२३, १२४, १२५, १२७, १२८, १२९, १३०, १३१, १३३, १३४, १३५, १३६, १३७, १३९, १४०, १४१, १४२, १४३, १४५, १४६, १४७, १४८, २४९, १५३, १५४, १५५, १५६, १५७, १५८वीं गाथाएँ अधिक है । इसका ग्यारहवां पर्याप्ति अधिकार है जब कि वट्ट० मूलाचार का यह बारहवाँ अधिकार है । इसमें ४, ८२, ९६, १२४, १५६, १५७, १५९, १६०, १६१, १६२, १६३, १६४, १६६, १६७, १६९, १७०, १७१, १७२, १७३, १७४, १७५, १७६, १७७, १७८, १७९, २२५ वीं गाथाएँ अधिक हैं । कुन्द० मूलाचार का बारहवां जो कि वट्ट० मूलाचार का ग्यारहवाँ शील गुणाधिकार है । इसमें २७ वी गाथा अधिक है । ___ गाथा संख्या ८१४०, ५।१८४, १२।१९८ वट्टकेरकृत मूलाचार की गाथाएँ कुन्द० मूलाचार में नहीं पायी जातीं।
वट्ट० मूलाचार में २।४१, ४।१८०, ५।२४, ४।२५, ५।२६, ५।२७, ५।२९ तवं ८।६२ वी गाथाएँ क्रमशः ३।१०९, १०६१, १२।१६६, १२।१६७, १२।१६८, १२।१६९, १०।६३ एवं ११४५ संख्या पर पुनरावृत्ति मिलती है । आचार्य कुन्दकुन्द और मूलाचार
आचार्य कुन्दकुन्द श्रमण परम्परा के प्रवर्तक ही नहीं अपितु अध्यात्म विद्या की उस अविच्छिन्न धारा के जनक भी हैं, जिनके कारण भारतीय श्रमणपरम्परा का यश सारे लोक में विश्रुत हुआ। ये मूलसंघ के प्रधान आचार्य है । समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय-( नाटकत्रयी ) नियमसार, अष्टपाहुड, द्वादशानुप्रेक्षा सिद्धय्भक्त्यादि संग्रह, रयणसार एवं कुरलकाव्य आदि आपकी सुप्रसिद्ध कृतियाँ हैं । जहाँ एक ओर मूलाचार और आचार्य कुन्दकुन्द की इन कृतियों की कुछ गाथाओं में समानता हैं । तो वहीं दूसरी ओर कुछ विषयों में भिन्नता भी है । जैसे' - मा० कुन्दकुन्द के ग्रन्थ गाथासंख्या
मूलाचार गाथासंख्या नियमसार
६२,६५,९९,१००,१०१ १२,१५,४५,४६,४७, १०२,१०३,१०४,१०५ ४८,३९,४२,१०४,३३२, ६९,७०,१४२,१२६,९ ३३३,५२५,५२६,२०२
१. अनेकान्त, वर्ष १२, अंक १२, मई १९५४, पृ० ३६२ २. मूलाचार, अनन्त कीर्ति ग्रन्थमाला, गिरगाँव, बम्बई वी. नि. सं. २४४६
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