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जैन सिद्धान्त : ५२५
मुख्यतः अचैतन्य स्वरूप वाला अजीव तत्व है । यह जीव का विरोधी है । पुण्य, पाप एवं बन्ध – ये तीनों जीव के द्वारा होने वाली अजीव की अवस्थायें हैं, जो आत्मा के मुक्त होने में बाधक हैं। आस्रव तत्व भी मुक्ति में बाधक है । संवर और निर्जरा तत्त्व आत्मा की अवस्था है और साधक भी हैं । मोक्ष आत्मा का वास्तविक स्वरूप है । खान से निकले हुए स्वर्ण पाषाण में जैसे स्वर्ण के अतिरिक्त मिट्टी आदि विजातीय वस्तुएँ होती हैं । उसे अग्नि के द्वारा दग्ध किया जाता है, तब वह शुद्ध स्वर्ण रूप धारण कर लेता है । उसी प्रकार कर्मों की अशुद्धता को दूर करने के लिए आत्मा को तपादि से तप्त करते हैं, तब आत्मा विशुद्ध होकर मुक्ति प्राप्त करता है ।" कहा भी है- सब इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत् रक्षा करनी चाहिए । अरक्षित आत्मा जाति-पथ (जन्म-मरण ) को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है ।" इस तरह विजातीय द्रव्य से सम्बन्ध छूटकर आत्मा के निर्मल आत्म-स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है । निर्वाण, परमपद, शिव, सिद्धगति, ३ पंचमगति आदि मोक्ष पर्याय के ही अन्यान्य नाम हैं ।
१. मूलाचार ५।४६.
२. अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो, सव्विंदिएहि सुसमाहि एहिं । अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ||
३. मूलाचार ९११०५.
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- दशवैकालिक चूलिका २०१६.
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