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________________ ५२४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन सम्पन्न हो जाता है तब उसे मोक्ष प्राप्त होता है। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन कर्म-बन्ध के कारणों का अभाव हो जाने से तथा संचित कर्मों की निर्जरा से समस्त कर्मों का आत्यन्तिक अभाव (क्षय) होना ही मोक्ष है। आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जब आत्मा कर्ममल-कलंक और शरीर को अपने से सर्वथा अलग कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुण रूप और अव्याबाध सुख रूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं । अकलंकदेव ने कहा है कि सम्यग्दर्शनादि कारणों से सम्पूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक मूलोच्छेद होना मोक्ष है। जिस प्रकार बन्धन में पड़ा हुआ प्राणी जंजीर आदि से छूटकर स्वतन्त्रता पूर्वक यथेच्छ गमन करते हुए सुखी होता है, उसी प्रकार समस्त कर्म बंधनों से मुक्त होकर आत्मा स्वाधीन हो अपने अनन्त ज्ञान-दर्शन रूप अनुपम सुख का अनुभव करता है।" वस्तुतः मोक्ष साध्य है और संवर-निर्जरा साधन हैं क्योंकि संवर हो जाने पर जो पूर्व संचित कर्म हैं वे अपना रस देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं और नये कर्म आते नहीं, ऐसी अवस्था में मुक्ति प्राप्ति स्वाभाविक है । एक बार कर्म बंधन से आत्मा अलग हो पाता है तो फिर सदा के लिए वह कर्मबंधन से मुक्त रहता है। इसीलिए मुक्ति को आत्मा का चरम पुरुषार्थ कहा है। वस्तुतः मुक्ति का प्रारम्भ तो होता है पर अन्त नहीं होता इसीलिए वह अनन्त है । उपसंहार : इस प्रकार नव तत्वों (पदार्थों) में जीव और अजीव ये दो मुख्य तत्व हैं। इन्हीं दो के विस्तार से नव तत्त्वों की गणना होती है। क्योंकि मोक्ष साधन के रहस्य को बतलाने के लिए इन नव पदार्थों का भेद आवश्यक है। इनमें प्रथम जीव और अन्तिम मोक्ष तत्व है। इन दोनों तत्त्वों के साथ ही अन्य तत्त्वों के भेदों में तो मोक्ष की साधक तथा बाधक अवस्थाओं का विवेचन है। साधक तत्व तो स्पष्ट हैं किन्तु बाधक तत्व १. रागी बंधइ कम्मं मुच्चइ जीवो विराग संपण्णो । एसो जिणोवएसो समासदो बंधमोक्खाणं ॥ मूलाचार ५।५०. २. (क) बन्धहेत्वभाव निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:-तत्त्वार्थसूत्र १०।२. (ख) अभावाद्बन्धहेतूनां बद्धनिजंरया तथा । कत्स्नकर्मप्रमोक्षो हि मोक्ष इत्यभिधीयते ।। तत्वार्थसार ८१२. ३. निरवशेषनिराकृतकममल-कलंकस्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादि - गुणमव्याबाधसुखमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति । सर्वार्थसिद्धि १।१. उत्थानिका पृष्ठ १. ४. कृत्स्नकर्मवियोग लक्षणोमोक्षः-तत्त्वार्थवार्तिक १।४।२० पृष्ठ २७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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