SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन मिलता है। प्राचीनता की दृष्टि से इन उल्लेखों को काफी महत्त्वपूर्ण माना जाता है । इसी अधिकार में नियुक्ति द्वारा पदों की व्याख्या करने की प्राचीन प्रणाली सुरक्षित है। इस दृष्टिसे चतुर्विन्शतिस्तव नामक द्वितीय आवश्यक की निम्नलिखित गाथा महत्त्वपूर्ण है लोगुज्जोए धम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहते। कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहिं मम दिसंतु ॥४२।। इस गाथा के प्रत्येक पदों की नियुक्ति गाथा संख्या ४३ से ६९ तक सत्ताईस गाथाओं में की गई है। उपर्युक्त गाथा कुन्दकुन्दाचार्यकृत तीर्थङ्कर भक्ति को दूसरी गाथा से तथा श्वेताम्बर परम्परा के 'लोगस्स' पाठ से तुलना योग्य है। द्वितीय आवश्यक के प्राचीन एवं मौलिक पाठ तथा स्वरूप की यह गाथा परिचायक है । मूलाचारकार ने इस अधिकार को आरम्भ में 'आवश्यक नियुक्ति' नाम से भी उल्लिखित किया है जो श्वेताम्बर परम्परा के 'आवश्यक नियुक्ति' नामक ग्रन्थ से भी अधिकार तुलना योग्य है । ८. द्वादशानुप्रेक्षाधिकार : इस अधिकार की ७६ गाथाओं में अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यात-इन बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) का वैराग्यवर्धक सूक्ष्म विवेचन है। इसमें बताया है : राग, द्वेष, क्रोधादि आश्रव हैं, जिनसे कर्मों का आगमन होता है। ये कूमार्गों पर ले जाने वाली अति बलवान शक्तियाँ हैं। शांति, दया, क्षमा, वैराग्य आदि जैसे-जैसे बढ़ते हैं, जीव वैसे-वैसे मोक्ष के निकट बढ़ता जाता है । चार प्रकार के संसार का स्वरूप तथा अन्त में अनुप्रेक्षाओं की भावना से कर्मक्षय और परिणामशुद्धि का विवेचन है। ९. अनगारभावनाधिकार : सवा सौ गाथाओं के इस अधिकार में अनगार का स्वरूप तथा लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीरसंस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यान इन दस शुद्धियों को अनगार के सूत्र बताये हैं । अनगार तथा उनके सत्वगुणों, अनगार के पर्यायवाची नामों का उल्लेख किया गया है । वाक्यशुद्धि के प्रसंग में स्त्री, अर्थ, भक्त, खेट, कर्वट, राज, चोर, जनपद, नगर और आकर इन कथाओं का स्वरूप तथा रूपक द्वारा प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम रूपी आरक्षकों द्वारा तपरूपी नगर तथा ध्यानरूपी रथ के रक्षण की बात कही गयी है । यथार्थ अनगारों का विवेचन तथा अभ्रावकाश आदि योगों का स्वरूप कथन भी किया गया है । १०. समयसाराधिकार : इस अधिकार में एक सौ चौबीस गाथाएँ हैं । इसमें वैराग्य की समयसारता, चारित्राचरण आदि का कथन करते हुए श्रमण को लौकिक व्यवहार से दूर रहने को कहा है । चारित्रसंयम और तप से रहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy