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प्रास्ताविक : ७
ज्ञानादि की निरर्थकता और प्रतिलेखन तथा इसके साधनभूत पिच्छिका की विशेषताएँ आदि इस अधिकार के प्रारम्भिक प्रतिपाद्य विषय हैं। इसमें श्रमण के लिए कहा गया है कि यदि वह सम्यक्चारित्र का पालन करना चाहता है तो भिक्षाटन द्वारा आहार ग्रहण करे, वन में रहकर सुख-दुःख सहे तथा मैत्रीभावना का चिन्तन करे । शुद्धि-योग, आहारशुद्धि, जुगुप्सा के भेद-प्रभेद, श्रमणों के ठहरने योग्य तथा वर्जनीय स्थान का वर्णन पापश्रमणादि विषयों का स्वरूप बताते हुए दुष्ट मुनियों के संसर्ग से उत्पन्न दोषों का वर्णन किया गया है। आयिकाओं के आवास पर श्रमणों के गमन तथा स्वाध्याय आदि कार्य करने का निषेध किया गया है। पंचेन्द्रिय विषयों एवं काष्ठादि में चित्रित स्त्रियों तक से दूर रहने के कथन प्रसंग में ही अब्रह्म के दस कारण तथा पंचसूना आदि विविध विषयों का अच्छा विवेचन है। इसी अधिकार में आचेलक्य, औद्देशिक शय्यागृहत्याग, राजपिण्डत्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासस्थितिकल्प, एवं पर्यास्थितिकल्प-इन दस स्थितिकल्पों का नामोल्लेख है। अधिकार के अन्त में शास्त्र के सार का प्रतिपादन करते हुए चारित्र को सर्वश्रेष्ठ कहा है। श्रमणों के यत्नाचारपूर्वक दैनन्दिन सभी क्रियाएँ करते हुए सम्यक्चारित्र के पालन का भी उपदेश है।
११. शीलगुणाधिकार : इसमें मात्र छब्बीस गाथायें हैं। इस अधिकार में तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रिय, दस काम, दस श्रमणधर्म इन्हीं सबका परस्पर गुणा करने पर शील के अठारह हजार भेदों का कथन किया गया है। इन्हीं शीलों के उत्पत्ति-क्रम के अनुसार मनोगुप्ति युक्त अशुभ मनःप्रवृत्ति रहित, शुद्धभाव युक्त, आहार संज्ञा रहित स्पर्श-इन्द्रिय संवृत, पृथ्वीसंयम एवं क्षमा गुण से संयुक्त, शुद्ध चारित्र वाले मुनि श्रेष्ठों का प्रथमशील विशुद्ध रूप में स्थिर होता है । इसी तरह क्रमशः अठारह हजार शील स्थिर होते हैं । इसी अधिकार में गुणों अर्थात् उत्तरगुणों के भेद-प्रभेदों की चौरासी लाख संख्या का कथन किया है। हिंसादि २१, अतिक्रमणादि चार, काय के सौ, अब्रह्म के दस, आलोचना के दस दोष और प्रायश्चित्त (शुद्धि) के आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान इन दस भेदों के दस दोष तथा इन सब दोषों का परस्पर गुणा करने पर चौरासी लाख दोष बताये हैं तथा इनसे विपरीत चौरासी लाख शीलगुण सिद्ध किये हैं।
१२. पर्याप्त्यधिकार : इसमें दो सौ छह गाथाएँ हैं। इसमें पर्याप्ति, देह, . संस्थान, काय-इन्द्रिय, योनि, आयु, प्रमाण, योग, वेद, लेश्या, प्रविचार, उपपाद,
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