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प्रास्ताविक : ५
आदि पदार्थों का विशद् वर्णन किया गया है । रात्रिभोजन त्याग, पाँच समिति, गुप्ति, तप, ध्यान, स्वाध्याय, आदि विषयों का विस्तृत स्वरूप कथन तथा इनका पालन करने से होने वाले लाभों का भी विवेचन है । प्रसंगवश गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली अथवा अभिन्नदशपूर्वी द्वारा कथित ग्रन्थों को सूत्र कहा है । संग्रह, आराधना नियुक्ति, मरणविभक्ति, स्तुति, प्रत्याख्यान, आवश्यक
और धर्मकथा आदि जैन सूत्र ग्रन्थों तथा ऋग्वेद, सामवेद, आदि वेद शास्त्रों, कौटिल्य, आसुरक्ष, महाभारत, रामायण आदि ग्रन्थों एवं रक्तपट, चरक, तापस, परिव्राजक आदि के नामों का उल्लेख मिलता है ।
६. पिण्डशद्धि-अधिकार : इसमें तेरासी गाथाएँ हैं । श्रमणों के पिण्डैषणा (आहार) से सम्बन्धित सभी नियमों की विशद् मीमांसा की गयी है । उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजन, प्रमाण, इङ्गाल, धूम और कारण इन आठ दोषों से रहित आहार शुद्धि का, आहार त्याग के कारण, आहार ग्रहण के उद्देश्य, दाता के गुण, चौदह मल, आहार ग्रहण की विधि और मात्रा तथा आहार के अन्तराय आदि आहार चर्या से सम्बन्धित सभी विषयों का विस्तृत विवेचन है ।
७. षडावश्यक-अधिकार : एक सौ तेरानवे गाथाओं के इस अधिकार को आवश्यक नियुक्ति नाम से अभिहित किया गया है तथा इसका प्रारम्भ पंच नमस्कार मंत्र की निरुक्ति पूर्वक हुआ है । अर्हन्त, जिन, आचार्य, साधु, उत्तम आदि शब्दों की भी निरुक्ति पूर्वक व्याख्या की गई है । अर्हन्त, पद की निरुक्ति महत्त्वपूर्ण है । सर्वसाधु के विषय में कहा है कि जो सदा मोक्ष की कामना से मूलगुणों को धारण किये रहता है तथा सभी जीवों में समता भाव रखता है वह सर्वसाधु है । सामायिक, स्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्गइन छह आवश्यकों का निरुक्ति एवं भेदपूर्वक विस्तृत विवेचन है । सामायिक के विवेचन के प्रसंग में कहा है : सब कामों में राग-द्वेष रहित होकर समभाव व द्वादशांग सूत्रों में श्रद्धान करना उत्तम सामायिक है। लोक, धर्म, तीर्थ, भक्ति, विनय, कृतिकर्म, अवनति, चतुर्विध आहार और आलोचना-इन सब विषयों का स्वरूप तथा भेदपूर्वक कथन, स्वाध्याय-काल, वन्दनादि कायोत्सर्ग में वर्ण्य बत्तीस दोष, आसिका, निषीधिका का विधान तथा पार्श्वस्थादि पापश्रमणों आदि का विवेचन किया गया है । इस अधिकार की ये विशेषताएँ हैं कि इसमें सामायिक संयम और छेदोपस्थापना संयम के विषय में उन मतों का उल्लेख किया गया है जिनका सम्बन्ध प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव एवं अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर तथा मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों के परम्परा-भेद से है । नित्य प्रतिक्रमण और नैमित्तिक प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में भी इसी तरह के मतों का उल्लेख है। इन्हीं मतों का उल्लेख अन्यान्य दिगम्बर तथा श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य में भी देखने को
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