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________________ जैन सिद्धान्त : ५१७ को भावास्रव कहा है । यद्यपि ये कर्म पुद्गल एकरूप हैं तो भी जिस-जिस आत्मगुण को आच्छादित करते हैं तदनुसार ही उन कर्म पुद्गलों का वैसा नाम है । इस तरह विविध स्वभाववाले सभी कर्मों को आठ भागों में विभाजित किया गया है । कर्मबंध की प्रक्रिया :---प्रश्न उठता है कि अमूर्तिक जीव (आत्म)-प्रदेश के साथ मूर्तिक कर्म पुद्गलों का संबंध होता कैसे है ? इसका उत्तर यह है कि-- जैसे घी, तेल आदि के स्नेह गुण से युक्त शरीर पर धूल चिपक जाती है वैसे ही राग-द्वेष रूप स्नेह से लिप्त जीव-प्रदेश में कर्म पुद्गल चिपक जाते हैं। क्योंकि तेजस् और कार्माण शरीर के संबंध से प्रतिसमय जीव को कर्मरूप रेणुओं का बंध होता रहता है। वस्तुतः कार्माण वर्गणाओं का आत्मा से संश्लेष रूप सम्बन्ध को प्राप्त होना बन्ध है । यद्यपि बन्ध 'कर्म और आत्मा' के एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध का नाम है तथापि यह सभी आत्माओं के नहीं पाया जाता है किन्तु जो आत्मा कषायवान् है वही कर्मों को ग्रहण कर उससे बँधता है। यदि लोहे का गोला गरम न हो तो पानी को ग्रहण नहीं करता किन्तु गरम होने पर वह जैसे अपनी ओर पानी को खींचता है वैसे ही शुद्ध आत्मा कर्मों को ग्रहण करने में असमर्थ है किन्तु जब तक वह कषाय सहित रहता है तब तक प्रत्येक समय में बराबर कर्मों को ग्रहण करता रहता है और इस प्रकार कर्मों को ग्रहण करके उनसे संश्लेष को प्राप्त हो जाना ही बन्ध है । इस बन्ध के मुख्य हेतु योग और कषाय है। उदाहरण के लिए योग को वायु की, कषाय को गोंद की, आत्मा को दीवाल की और कर्म परमाणुओं को धूलि की उपमा दी जा सकती है। यदि दीवाल में गोंद या तेल का लेप हो तो वायु के द्वारा उड़ने वाली धूलि दीवाल पर आकर चिपक जाती है तथा दीवाल के लेप रहित सूखी होने पर धूलि लगकर तुरन्त झड़ जाती है । यहाँ धूलि का हीनाधिक परिमाण में उड़कर आना वायु के वेग पर निर्भर है । वेग के तीव्र होने से अधिक धूलि और मन्द होने से कम धूलि उड़कर आती है । तेल या गोंद के लगे रहने से दीवाल पर धूलि अधिक समय तक रहती है । इसी प्रकार योग के तीन या मन्द होने से कर्म-परमाणु हीनाधिक रूप में आते हैं और कषाय-राग-द्वेष भावों के तीब्र या मन्द होने से कर्म आत्मा के साथ अधिक समय या कम समय तक रहते हैं। जब यह जोव कर्म को बाँधता १. होउप्पिदगत्तस्स रेणवो लग्गदे जधा अंगे । तह रागदोससिणेहोल्लिदस्स कम्मं मुणेयव्वो । मूलाचार ५१३९ २. तत्त्वार्थसूत्र ८०२-३. पृष्ठ ३७२. (पं० फूलचंद शास्त्री द्वारा सम्पादित) ३. गुरु गोपालदास वरैया स्मृति ग्रन्थ-पृष्ठ ३९२. ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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