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________________ ५१६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन मूलतः कर्म के दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकम। पुद्गल के पिण्ड को द्रव्यकर्म कहते है और उसमें जो फल देने की शक्ति है उसे भावकर्म कहते हैं।' द्रव्यकर्म के मूलतः भेद आठ हैं और उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस तथा उत्तरोत्तर भेद असंख्यात हैं । ये सब पुद्गल के परिणाम रूप हैं क्योंकि जीव की परतन्त्रता में निमित्त होते हैं । भावकर्म चैतन्य के परिणाम रूप क्रोधादि भाव हैं उनका तो प्रत्येक जोव को अनुभव होता है, क्योंकि जीव के साथ उनका कथंचित् अभेद है। इसी से भावकर्म पारतन्त्र्य स्वरूप हैं और द्रव्यकर्म परतन्त्रता में निमित्त होता है । ___ कर्म स्वरूप विमर्श :-सामान्यतः जीव के द्वारा की जाने वाली अच्छी या बुरी क्रिया को कर्म कहते हैं । जैन दर्शन के अनुसामसारी जीव प्रतिसमय मन, वचन और काय के योग (हलन-चलन रूप क्रिया) के द्वारा सूक्ष्म कर्म-परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होते रहते हैं तथा राग-द्वेष एवं कषाय परिणामों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं । दूसरे शब्दों में आत्मा की शुभ एवं अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट किये हुए पुद्गल चार प्रकार (प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश) से आत्मा के साथ सम्बन्ध करके जो शुभाशुभ फल के कारण बनते हैं, शुभाशुभ रूप से उदय में आते हैं, उन आत्म-ग्रहीत पुद्गलों को कर्म कहते हैं । जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं । जीव और पुद्गल इन दोनों का सम्बन्ध अनादि है । अतः संसारी जीव और पुद्गल में परिस्पन्द (हलन-चलन) रूप जो क्रिया होती है उसे कर्म कहते हैं। ____ कर्म पुद्गल जिस रूप में अत्मा को विभिन्न शक्तियों को प्रगट होने से रोकते है उनके ज्ञानावरण आदि आठ भेद किये । जो पदार्थ को ढकता है अथवा पदार्थ जिससे छिपाया जाता है उसे आवरण कहते हैं। यहाँ आवरण शब्द ज्ञान और दर्शन इन दो के साथ ही संबंधित है । आश्रव के द्रव्याश्रव और भावास्रव-इन दो भेदों में भी रागद्वेषादि परिणामों का निमित्त पाकर ज्ञानावरणादि कर्मों के आत्म प्रदेश में खिंचकर आने को द्रव्यास्रव तथा ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्म आत्म प्रदेश की ओर खिंचकर आने के निमित्त से जीव के रागादि विकल्प परिणामों १. पुग्गलपिंडो दव्वं तस्सतो भावकम्मं तु । गो० कर्मकाण्ड ६. २. गो० कर्मकाण्ड भाग १-प्रस्तावना पृष्ठ १८. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ३. जोवं परतन्त्रीकुर्वन्ति, स परतन्त्री क्रियते वा यस्तानि कर्माणि--आप्तपरीक्षा टीका पृ० ११३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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