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जैन सिद्धान्त : ५१५ ८ उपशान्त-जो कर्म परमाणु उदीरणा को प्राप्त होने में समर्थ न हो उसे उपशान्तकरण कहते हैं।
९. निधत्ति-कर्म की वह अवस्था जो उदीरणा और संक्रमण इन दोनों के अयोग्य हो।
१०. निकाचित-कर्म की वह अवस्था जो उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा और सक्रम-इन चारों के अयोग्य हो वह निकाचित करण या निकाचना है । अष्टविध कर्म :
मूल प्रकृतिबन्ध के जिन आठ भेदों का निर्देश किया है वे इस तरह हैंज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इन्हें ही कर्म की मूलप्रकृतियाँ स्वभाव) कहते हैं।
कर्म के इन आठ भेदों को दो भागों में विभाजित किया जाता है-घातिया कर्म और अघातिया कर्म । इनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घातिया कर्म है तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-ये चार अघातिया कर्म कहलाते हैं। जिनसे अनुजीवी गुण (आत्मा के अतिरिक्त अन्य द्रव्य में न पाई जाने वाली शक्ति, जो आत्मा की विशेषता मानी जाती है वह शक्ति) रूप शक्तियों का घात करने वाले को घातिया कर्म कहते हैं तथा प्रतिजीवी शक्तियों (जो शक्तियाँ आत्मा के अतिरिक्त अन्य द्रव्य में भी सम्भव हैं) का घात करने वाले कर्म अघातिया कर्म कहे जाते हैं। वस्तुतः आत्मा में दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं-अनुजीवी और प्रतिजीवी । यद्यपि जीव के गुणों का घात दोनों कर्म करते हैं किन्तु घातिया कर्म अनुजीवी गुणों का और अघातिया कर्म प्रतिजीवी गुणों का घात करते हैं ।
___ आठ प्रकार के कर्मों में प्रत्येक के प्रभेदों (उत्तर भेदों) को उत्तर'प्रकृतिबन्ध कहते हैं। ये उत्तरप्रकृतियों के भेद इस प्रकार हैं-ज्ञानावरण के पाँच, दर्शनावरण के नौ, वेदनीय के दो, मोहनीय के अट्टाइस, आयु के चार, नाम के बयालिस वथा प्रकारान्तर से तेरानबे, गोत्र के दो, अन्तराय के पाँच भेद । इस प्रकार ये सत्तानबे भेद हुए। इनमें नामकर्म के बयालिस भेदों के स्थान पर प्रभेदों सहित तिरानबे भेद करके जोड़ने पर इन आठ कर्मों के कुल एकसौ अड़तालीस भेद (उत्तरप्रकृतियाँ) होते हैं।'
१. पंच णव दोण्णि अट्ठावीसं चदुरो तहेव वादालं ।
दोण्णि य पंच य भणिया पयडीओ उत्तरा चेव ॥ मूलाचार १२११८६.
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