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"५१४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
जिससे वह ही लक्षण रूप कार्य उत्पन्न होता है वह 'प्रकृति' कहलाती है। अपने स्वभाव से च्युत नहीं होना स्थिति है। जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध का नियतकाल तक अपने माधुर्य स्वभाव से च्युत न होना उनकी स्थिति है । उनका रस विशेष अनुभव है । जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में तीव्र, मन्द आदि भाव से रस विशेष या मधुरता होती है, वैसे ही कर्मपुद्गलों में अपने में होने वाली सामर्थ्य विशेष का नाम अनुभाग है । ‘इयत्ता' अर्थात् 'इतना है'-ऐसा निश्चय होना प्रदेश है । इस तरह बंध के ये चार प्रकार हैं।' कर्म को दस अवस्थायें
कर्म की विविध अवस्थायें होती हैं जो बंध से लेकर उनकी निर्जरा होने तक यथासम्भव होती हैं । ये दस प्रकार की होती है। इन्हें कर्म प्रकृतियों के दस करण भी कहते हैं।
१. बंधकरण-जिस समय कर्मों का आस्रव होता है उसी समय उनका बंध होता है । बंध होते समय प्रकृति, प्रदेश, स्थिति एवं अनुभाग-ये चारों बातें एक साथ पैदा हो जाती हैं । अतः पुद्गल द्रव्य का कर्म रूप होकर आत्मप्रदेशों के साथ संश्लेष सम्बन्ध होना बंध है।
२. उत्कर्षण-कर्मों का जो स्थिति एवं अनुभाग पूर्व में था उसमें वृद्धि का होना उत्कर्षण है।
३. संक्रमण-एक कर्म प्रकृति के परमाणुओं का सजातीय दूसरी प्रकृति रूप हो जाना संक्रमण है। जैसे असाता कर्म परमाणुओं का साता रूप हो जाना । वैसे मूल कर्मों में परस्पर संक्रमण नहीं होता। जैसे ज्ञानावरणकर्म दर्शनावरण रूप नहीं हो सकता।
४. अपकर्षण-कर्मों की स्थिति एवं उनका अनुभाग जो पूर्व में था उसको कम करना या घटाना अपकर्षण है।
५. उदोरणा-फलकाल के पहले कर्म के फल देने रूप अवस्था को उदीरणा कहते हैं।
६. सत्त्व-अस्तित्व अर्थात् पुद्गलों का कर्म रूप रहना सत्त्व है।
७. उदय-कर्मों का अपनी पूर्वबद्ध स्थितिबन्ध के अनुसार उदय को प्राप्त होना उदय है। १. मूलाचार वृत्ति १२।१८४. २. बंधुक्कट्टणकरणं, संकममोकटुंदीरणा सत्तं ।
उदयुवसामणिधत्ती, णिकाचणा होदि पडिपयडी ॥ गो० कर्मकाण्ड ४३७.
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