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जैन सिद्धान्त : ५१*
को रोकने और सुख-दुःख का अनुभव कराने का जो भाव बंधता है उस स्वभाव का निर्माण ही प्रकृतिबंध है । प्रकृति का अर्थ है स्वभाव । जैसे नीम का स्वभावकडुवा, गुड़ का स्वभाव मीठा होता है' इसी तरह जिस कर्म का जो स्वभाव है वह उसकी प्रकृति है । जैसे ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव है ज्ञानगुण को ढ़कना ।
इस प्रकृतिबंध के दो भेद हैं- मूलप्रकृतिबंध और उत्तर- प्रकृतिबंध । इनमें मूलप्रकृतिबंध के आठ भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ये ही आठ मूल प्रकृतियाँ हैं जो कि उत्तरप्रकृतियों के लिए आधारभूत हैं ।
२. स्थितिबंध - स्थिति अर्थात् काल मर्यादा । अतः कर्म परिणत पुद्गलों का जीव प्रदेशों के साथ निर्धारित कालावधि तक रहना स्थितिबंध है । अर्थात् कर्मबंधन की स्थिति से कुछ निर्धारित काल तक च्युत न होने की स्थिति रूप काल मर्यादा को स्थितिबंध कहते हैं । वस्तुतः प्रत्येक कर्म का बंध होते ही उसका सम्बन्ध आत्मा से कब तक रहेगा, इस काल मर्यादा का निश्चित होना ही स्थितिबन्ध है |
३. अनुभाग बंध -- कर्म की इस अवस्था को अनुभव बन्ध भी कहते हैं । इसका अर्थ है 'फलदान की शक्ति' । प्रत्येक कर्म में तीव्र या मन्द रूप में फल देने की शक्ति होती है अतः इसका निश्चय होना ही अनुभाग बंध है । इस तरह जीव प्रदेशों के साथ एकावगाह सम्बन्ध को प्राप्त हुए कर्म-प्रदेशों से जीव को विभिन्न प्रकार से सुख-दुःख रूप फल प्राप्ति को अनुभाग बंत्र कहते हैं ।
४. प्रदेश बंध - कर्म रूप से परिणत अनन्तानंत पुद्गल स्कन्धों का जीव के प्रदेशों के साथ गाढ़ सम्बन्ध होना प्रदेश बंध है । वस्तुतः प्रतिसमय बंधने वाले कर्म परमाणुओं की परिगणना प्रदेशबंध में की जाती है। जो कर्म आत्मा से बन्ध को प्राप्त होते हैं वे नियत ही रहते हैं । अतः एक काल में जितने कर्म परमाणु.
बन्ध को प्राप्त होते हैं उनका वैसा होना ही प्रदेशबंध है ।
इस तरह जितने भी कर्म हैं वे सब इन चार भागों में विभाजित हैं । मूलाचारवृत्ति में कर्म की इन चार अवस्थाओं को इस प्रकार समझाया है
प्रकृतिस्तिक्तता, गुडस्य का प्रकृतिर्मधुरता
१. प्रकृति: स्वभाव: निम्बस्य का - मूलाचार वृत्ति १२ । १८४.
२. दुविहो य पयदिबंधो मूलो तह उत्तरो चेव -- मूलाचार १२।१८४.
३. अट्ठविह कम्ममूलं वही ९।११६.
४. प्रकृतिस्थित्यिनुभव प्रदेशास्तद्विधयः -- तत्त्वार्थसूत्र २/३.
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