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५१२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
कर्म पुद्गलों का दूध पानी की तरह मिल जाना, संबंधित हो जाना अथवा एकीभाव हो जाना बंध है । मूलाचारकार ने बंध के विषय में यह बताना अभीष्ट समझा है। "कि जीवतत्त्व नित्यानित्य रूप है । क्योंकि सर्वथा नित्य मानने पर योग और कषाय उत्पन्न न होने से संसार और मोक्ष तत्त्व की सिद्धि नहीं होगी और सर्वथा - अनित्य मानने पर बंध की ही सिद्धि न होगी, तब मोक्ष किसे होगा ? अतः जीव को सर्वथा अपरिणत (नित्य) या सर्वथा उच्छिन्न ( अनित्य ) मानने पर तो बंध • स्थिति का कारण ही समझ में नहीं आता । अतः सर्वप्रथम जीवतत्त्व को नित्या - नित्य रूप मानना चाहिए ।
बंध के कारण - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग — ये चार बंघ के कारण आचार्य वट्टकेर ने बतलाये हैं ।" तत्त्वार्थसूत्र में इन चारों के साथ प्रमाद को मिलाकर बंध के पांच हेतु बतलाये हैं । किन्तु इसमें तात्त्विक दृष्टि से कोई - मतभेद नहीं है क्योंकि अविरति और प्रमाद का अन्तर्भाव कषाय में ही हो जाता है । अतः मुख्य रूप में मिथ्यादर्शन, कषाय और योग — ये तीन ही बंध के कारण हैं। बंध के कारणों में - १. मिथ्यादर्शन का अर्थ है विपरीत श्रद्धान । २. हिंसा - आदि पांच पापों को नहीं छोड़ना या पांच व्रतों का पालन न करना अविरति है । • जिससे छह काय के जीवों की हिंसा से और इन्द्रियों के विषयों से निवृत्ति नहीं होती उसे भी अविरति कहते हैं । ३. अच्छे कर्मों में आदरभाव का न होना या - कषाय सहित अवस्था और कुशल कार्यों में अनादर भाव प्रमाद कहलाता है । ४. चारित्ररूप आत्मपरिणामों में मलिनता को कषाय कहते अर्थ है आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द | यह मन, वचन और निमित्त से होता है । अतः योग के ये तीन भेद हैं । इस हेतु हैं ।
हैं तथा ५. योग का काय — इन तीनों के प्रकार ये बंध के पांच
और प्रदेशबंध - ये करता है तथा कषाय
बंध के भेद - प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध बंध के चार भेद हैं । इनमें से जीव प्रकृति और प्रदेश बंध से स्थिति और अनुभाग बंध करता है ।" ये ही कर्म की चार अवस्थायें है । १. प्रकृतिबंध - कार्मण वर्गणा से आये हुए पुद्गल परमाणु ज्ञानावरणादि रूप से परिणत होते हैं अर्थात् कर्म पुद्गलों में जो ज्ञान को आवृत्त करने, दर्शन
मूलाचार ५१४७.
१. अपरिणदुच्छिण्णेसु या बंधट्ठिदिकारणं णत्थि ।
२. मूलाचार १२।१८२.
३. तत्त्वार्थ सूत्र ८१.
४. पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेशबंधो य चदुविहो होइ - मूलाचार १२११८४. ५. जोगा पर्यादिपदेशा ठिदिअणुभागं कसायदो कुणदि --- मूलाचार ५१४०.
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