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जैन सिद्धान्त : ५०५ है, चतुर्गति में भ्रमण करते हैं उसे भी गति कहते है। नरक, तिर्यक् , मनुष्य
और देव-ये गति के चार भेद हैं। इस दृष्टि से गति मार्गणा के भी चार भेद हुए।
२. इन्द्रिय मार्गणा : आत्मा के चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं। ये पदार्थों का ज्ञान कराने में कारण हैं । द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ये इसके दो भेद हैं । निवृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय तथा लब्धि (ज्ञानावरण का क्षयोपशम विशेष) और उपयोग (ज्ञानावरण के क्षयोपशम से पदार्थ को जानने रूप प्रवृत्ति) को भावेन्द्रिय कहते हैं । स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियां हैं, इन्हीं से युक्त जीवों को एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय आदि कहते हैं ।
३. काय मार्गणा : जाति नामकर्म के उदय से अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय विशेष को काय कहते है । इस प्रकार मार्गणा के विवेचन में शरीर में स्थित जीव की पर्याय विशेष को काय कहा जाता है । यहाँ काय का अर्थ शरीर नहीं लेना चाहिए । मूलाचारवृत्ति में भी कहा है-योग रूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए औदारिकादि रूप पुद्गलपिंड को धारण करने वाली आत्मा को पर्याय को काय कहते हैं । पृथ्वी, अप, तेज, वायु. वनस्पति और त्रस ये काय के छह भेद हैं।"
४. योग मार्गणा : आत्मा के प्रदेशों में जो संकोच-विकोच होता है उसे योग कहते हैं । अथवा मन, वचन और शरीर के आश्रय से आत्मप्रदेशों में होने वाले परिस्पंदन को भी योग कहा है। तत्त्वार्थवर्तिक (७।१३।४) के अनुसार जिसके कारण कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होता है, उसे योग कहते हैं । योग के तीन भेद हैं-१. भावमन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं । २. वचन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसे वचनयोग कहते हैं तथा ३. काय की क्रिया के लिए जो प्रयत्न होता है उसे काययोग कहते हैं। जिन-जीवों के पुण्य और पाप के उत्पादक शुभ और अशुभ योग नहीं पाये जाते हैं वे अनुपम और अनन्त-बल सहित अयोगी जिन (चौदहवें गुणस्थान वाले) कहलाते हैं।
मनोयोग के चार, वचनयोग के चार, तथा काययोग के सात-इस प्रकार योग के कुल पन्द्रह भेद निम्नलिखित हैं।"
२. वही।
१. मूलाचार वृत्ति १२।१५६. ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड १८१. ४. मूलाचार वृत्ति १२।१५६.
५. वही, ५।३०.
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