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________________ ५०० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन की पूर्णता भिन्न मुहूतं अर्थात् एक समय कम घटिकाओं में होती है । तिर्यञ्च और मनुष्यों की पर्याप्तियों का जघन्य स्थितिकाल क्षुद्र भव-ग्रहण अर्थात् कुछ कम एक उच्छ्वास का अठारहवां भाग-प्रमाण है तथा उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम है । औपपादिक अर्थात् देव और नारकियों की पर्याप्ति की पूर्णता प्रतिसमय होती है। जब आहारादि कारणों की निष्पत्ति होती है उसी समय देव-नारकों की शरीरादि कार्यों की भी निष्पत्ति होती है। देव नारकियों के पर्याप्तियों का जघन्यकाल दस हजार वर्ष तथा उत्कृष्ट काल तैतीस सागरोपम है । यहाँ एक बात ज्ञातव्य है कि पर्याप्तियों और जीवितावस्था--दोनों का काल समान होता है। प्रतिसमय से तात्पर्य भवनवासी आदि से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के विमानों में जिस उपपाद शिला की महनीय दिव्यशय्या पर देव उत्पन्न होते हैं। वे देव दिव्य रूप के द्वारा प्रतिसमय पर्याप्त हो जाते हैं अर्थात् वे सम्पूर्ण यौवन, दिव्य आकार तथा रूप से परिपूर्ण होते हैं।२ संस्थान : ___ संस्थान शब्द का अर्थ आकृति, आकार या शरीराकृति है । जैसे पृथ्वीकाय के शरीर का आकार मसूर के सदृश गोलाकार, जलकायिक जीव का आकार कुश के अन भाग पर स्थित जलबिन्दु के समान, अग्निकाय का सुई के अग्रभाग के समान, वायुकायिक का पताका के सदृश, वनस्पतियों के आकार अनेक प्रकार के (हुण्डक संस्थान वाले) होते हैं । त्रस अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के शरीर भी अनेक प्रकार के हुण्डाकार होते हैं ।३ पंचेन्द्रिय तियंञ्चों और मनुष्यों में समचतुरस्र, न्यग्रोध, स्वाति. कुब्जक, वामन और हुण्डक-ये छा संस्थान होते हैं । देवों में समचतुरस्र तथा नारकियों में केवल हुण्डक संस्थान होता है। . संस्थान के छह भेद-(१) समचतुरस्र संस्थान से तात्पर्य शरीर के प्रत्येक अवयव में समानता का होना और हीनाधिकता का सर्वथा अभाव । (२) न्यग्रोष से तात्पर्य बरगद के वृक्ष की तरह शरीर के ऊपर के अवयवों में बहुत परमाणुओं का होना अर्थात् ऊपर भारी तथा नीचे के भाग की रचना लघु होनान्यग्रोध संस्थान है। (३) स्वातिसंस्थान से तात्पर्य न्यग्रोध से विपरीत अर्थात् ऊपर के अवयवों में कम परमाणु तथा नाभि के नीचे के अवयवों में अधिक १. मूलाचार वृत्ति १२।७. २. मूलाचार १२१८. ३. वही, १२४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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