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________________ जैन सिद्धान्त : ४९९ ६. मनः पर्याप्ति-जिस कारण से सत्य, असत्य, उभय और अनुभय रूप चार प्रकार के मन के योग्य पुद्गल द्रव्यों का अवलंबन कर चार प्रकार के मन की -रचना आत्मा करता है, उस कारण की परिपूर्णता का होना मनःपर्याप्ति है।' योनि स्थान में प्रवेश करते ही जीव वहाँ अपने शरीर के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करता है । तत्पश्चात् उनके द्वारा क्रम से शरीर, श्वास, इन्द्रिय, भाषा तथा मन का निर्माण करता है । यद्यपि स्थूल दृष्टि से देखने पर इस कार्य में बहुत समय लगता है, पर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उपयुक्त छह कार्यों की शक्ति एक अन्तर्मुहूर्त में पूरी कर लेता है । इन्हें ही उसकी पर्याप्तियाँ कहते हैं। अर्थात् छहों पयाप्तियों का प्रारम्भ एक काल में होता है, परन्तु उनकी पूर्णता क्रमशः होती है। पर्याप्तियों के स्वामी-एकेन्द्रिय जीवों में आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छवास-ये चार पर्याप्तियाँ होती हैं । त्रस जीवों में अर्थात् द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों में उपयुक्त चार तथा पाँचवीं भाषा पर्याप्ति-ये पाँच पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। पर्याप्तक-अपर्याप्तक-जिन एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय असंज्ञी अथवा पंचेन्द्रिय जीवों के ये चार, पाँच या छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती वे जीव अपर्याप्तक कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में जीवों की शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने तक निवृत्यपर्याप्तक संज्ञा होती है, उसके बाद शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने पर वे पर्याप्तक कहलाने लगते हैं । जब तक आहार और शरीर पर्याप्ति की पूर्णता नहीं होती तब तक यह जीव अपर्याप्तक और जब तक शरीरपर्याप्ति निष्पन्न नहीं होती, तब तक निर्वृत्तिअपर्याप्तक कहलाता है तथा शरीर पर्याप्ति पूर्ण कर लेने पर पर्याप्तक कहलाने लगता है, चाहे भले ही इन्द्रिय आदि चार पर्याप्तियाँ पूर्ण न हुई हों । कुछ जीव जो शरीर पर्याप्ति पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, वे क्षुद्र भवधारी लब्धपर्याप्तक जीव कहलाते हैं। पर्याप्तियों की पूर्णता का कालमान-तिर्यञ्च और मनुष्यों की पर्याप्तियों १. मूलाचार वृत्ति १२॥४. २. एइंदिसु चत्तारि होति तह आदिदो य पंच भवे । वेइंदियादियाणं पज्जतीओ असण्णित्ति ॥ छप्पि य पज्जत्तीओ बोधवा होंति सण्णिकायागं । एदाहि अणिव्वत्ता ते दु अपज्जत्तया होंति ॥ मूलाचार १२५५-६. ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३१३९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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