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________________ "जैन सिद्धान्त : ५०१ परमाणुओं का संचय होना है। (४) कुब्जक संस्थान अर्थात् शरोर के पृष्ठ भाग में परमाणुओं का अधिक उपचय होना । (५) वामन संस्थान से तात्पर्य है शरीर के मध्यवर्ती अवयवों में परमाणुओं की अधिकता का होना तथा हाथ, पैर आदि अवयव छोटे होना । (६) हुण्डक संस्थान से तात्पर्य है सम्पूर्ण शरीर के अवयवों में बीभत्सपना का होना, परमाणुओं में न्यून या अधिकता का होना तथा सर्व लक्षणों की सम्पूर्णता का न होना।' प्रवीचार : मैथुन के उपसेवन अर्थात् विषय-सेवन को प्रवीचार कहते हैं ।२ स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत-इन पाँच इन्द्रियों से काम सेवनकरने का नाम प्रवीचार है । ३ वस्तुतः स्पर्श और रस ये दो विषय 'काम' के अन्तर्गत आते हैं तथा गंध, रूप और शब्द ये तीन विषय 'भोग' के अन्तर्गत हैं । इस तरह स्पर्श, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र--ये पाँच विषय माने गये हैं।" देवों में प्रवीचार (काम सम्बन्धी विषय सुखों का उपभोग) इस प्रकार है :- तिर्यञ्च, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ऐशानवासी देव कायप्रवीचारी अर्थात् शरीर से कामसुख का अनुभव करने वाले होते हैं । भवनत्रिक देव-देवी और सौधर्म एशान के देव-देवी मनुष्य के समान ही संक्लिष्ट कर्म के कारण शरीर के द्वारा कामसुखानुभव करते हैं तथा सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के देव-देवांगनायें स्पर्श के द्वारा कामसुखानुभव करते हैं । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव और कापिष्ठ स्वर्ग के देव रूप प्रवीचारी होते हैं । शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्ग तक के देव शब्द प्रवीचारी होते हैं अर्थात् देवांगनाओं के मधुर संगीत, अलंकारपूर्ण ध्वनि आदि के श्रवण मात्र में अतिशयसुख का अनुभव कर लेते हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प के देव मनःप्रवीचारी होते हैं। इन आनत आदि स्वर्गों के देव एवं देवियाँ एक दूसरे के स्मरण मात्र से परम १. समचउरसणग्गोहासादिय खुज्जा य वामणा हुण्डा । पंचेंदिय तिरियणरा देवा चउरस्स णारया हुण्डा । मूलाचार सवृत्ति १२।४९. २. मैथुनोपसेवनं प्रवीचार--तत्त्वार्थवार्तिक ४।७।१. ३. प्रवीचारः स्पर्शनेद्रियाद्यनुरागसेवा--मूलाचार वृत्ति १२।३. ४. कामा दुवेतिओ भोग इंदियत्था विहिं पण्णत्ता ॥ कामो रसो य फासो सेसा भोगेत्ति आहीया ।। मूलाचार १२।९७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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