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४९० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
सर्प, आकाशचर जीवों में कुछ जाति के तोते तथा स्थलचरों में गिरगिट, गोमा आदि जोव मनरहित पाँचों इन्द्रियों से युक्त होते हैं । ऐसे जीव मनरहित होने से नौ प्राण वाले असैनो (असंज्ञी) जीव कहलाते हैं। देव, नारकी, मनुष्य, तिर्यञ्च पशु आदि मनसहित दस प्राण वाले जीव सैनी (संज्ञी) कहलाते हैं। ये त्रस जीव त्रसनाली (त्रस जीवों का निवासक्षेत्र) के भीतर ही होते हैं बाहर नहीं ।' जिस प्रकार ठीक मध्य भाग में सार हुआ करता है. उसी प्रकार लोक के बहु मध्यभाग अर्थात् बीच में एक राजु लम्बी-चौड़ी और कुछ कम तेरह सजु ऊंची यह त्रसनाली है। निगोद :
जिन जीवों के एक ही शरीर के आश्रय अनन्तानंत जीव रहते हों, उसे निगोद कहते हैं। गोम्मटसार के अनुसार जो अनन्त जीवों को एक निवास दे उसे निगोद कहते हैं।२ लोकप्रकाश के अनुसार अनन्त जीवों के पिण्डभूत एक शरीर को भी निगोद कहते हैं । साधारण नामकर्म के उदय से जीव निगोद शरीरी होता है । निगोद जीवों का आहार और श्वासोछ्वास एक साथ ही होता है तथा एक निगोद जीव के मरने पर अनन्त निगोद जीवों का मरण और एक निगोद जीव के उत्पन्न होने पर अनन्त निगोद जीवों की उत्पत्ति होती है।
लोक-प्रकाश के अनुसार निगोद के बादर और सूक्ष्म ये दो भेद हैं । कन्द, मूल, अदरक, गाजर आदि बादर निगोद हैं। साधारण वनस्पति-काय स्थावर को सूक्ष्म निगोद कहते हैं । ये सूक्ष्म निगोद या जीव व्यावहारिक और अव्यावहारिक भेदों से दो प्रकार के हैं। इन्हें ही दिगम्बर परम्परा में इतर निगोद और. नित्य निगोद नाम से कहा गया है। ___ व्यावहारिक निगोद वे हैं जिन जीवों ने अनादि निगोद से एक बार भी निकलकर उस पर्याय को प्राप्त किया है तथा अव्यावहारिक निगोद वे हैं जो जीव कभी भी सूक्ष्म निगोद से बाहर निकलकर नहीं आये । बादर निगोद जीव सिद्धों की संख्या से अनन्तगुणा हैं। सूई के अग्रभाग में बादर निगोद के अनन्त जीव रहते हैं। सूक्ष्मनिगोद के जीव उनसे भी अनन्तगुणा हैं। लोकाकाश के. जितने प्रदेश हैं उतने सूक्ष्मनिगोद के गोले हैं । एक-एक गोले में असंख्यात निगोद हैं । एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं । निगोद वाले जीव से कम आयुष्य और
१. धवला-४।१, ४, ४, १४९।९. २. नि-नियतां गां-भूमि क्षेत्र निनासं, अनन्तानन्त जीवानां ददाति इति निगोद
-गोम्मटसार जीनकाण्ड प्रकरण १९१, पृ० ४२९ । ३. लोकप्रकाश ४।३१.
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