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________________ जैन सिद्धान्त : ४९१ किसी जीव का नहीं होता। ये एक श्वास में अठारह बार जन्म लेते और मरण करते हैं। मूलाचार में कहा है सूक्ष्मजीव सर्वलोक में रहते हैं। एक निगोद शरीर में अर्थात् गडूची आदि गनस्पति के साधारण शरीर में अनन्तजीव द्रव्यप्रमाण से भरे है अर्थात् आज तक जितने सिद्ध हुए है उनसे अनन्त गुणित सूक्ष्मजीव एक निगोद शरीर में रहते हैं क्योंकि वे निगोदी जीव सूक्ष्म होने से किसी के द्वारा न रोके जाते हैं और न वे किसी को रोकते हैं। इसीलिए असंख्यात प्रदेशी आकाश में भी अनंत जीव रहते हैं। निगोद में वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव अनन्त है, पृथ्वी, अम्, अग्नि और वायुकायिक इनमें सूक्ष्म जीव असंख्यात लोक प्रमाण हैं। धवला के अनुसार निगोदों में स्थित जीव दो प्रकार के है-नित्य निगोद और चतुर्गति निगोद । जो कभी त्रस पर्याय को प्राप्त करने वाले नहीं होते, सदाकाल निगोदों में ही रहते हैं वे नित्य निगोद कहलाते हैं। इन्हें ही श्वेताम्बर परम्परा में अव्यावहारिक निगोद कहा है। इस जगत् में ऐसे अनंत जीव हैं जिन्हें द्वीन्द्रियादि त्रस स्वरूप की कभी प्राप्ति नहीं हुई। मिथ्यात्वादि भावों से कलुषित जीव कभी निगोदवास नहीं छोड़ते । सूक्ष्म वनस्पति रूप से व्यवस्थित ऐसे अनंत जीव हैं ।" चतुर्गति निगोद, जीव वे हैं जो देव, नारकी, तिर्यञ्च और मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुनः निगोदों में प्रवेश करते रहते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में इसे व्यावहारिक निगोद कहते हैं। निगोद के नित्य और अनित्य ये दो भेद बताये हैं। अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आया हुआ जीव फिर सूक्ष्म निगोद में जा सकता है किन्तु वह व्यवहार राशि ही कहा जाएगा। १. मूलाचार १२।१६३, वृत्ति सहित । २. वही १२।१६४ । ३. तत्थ णिगोदेसु जे टिठ्दा जीवा ते दुविहा चउग्गइणिगोदा णिच्चणिगोदा चेदि-धवला १४।५, ६, १२८, पृ० २३६ ४. त्रिष्वपि कालेषु त्रसभावयोग्या ये न भवन्ति ते नित्यनिगोदाः-तत्त्वार्थ वार्तिक २।३२. तत्थ णिच्चणिगोदा णाम जे सव्वकालं णिगोदेसु चेव अच्छंति ते णिच्चणिगोदा णाम-धवला १४।५।६।१२८, पृ० २३६. ५. अस्थि अणंता जीवा जेहिं ण पत्ती तसाण परिणामो । 2 भावकलंकसुपउरा णिगोदवासं अमुंचंता ॥ मूलाचार ११११६२. ६. धवला १४१५।६।१२८, पृ० २३६. ७. लोकप्रकाश, ४१६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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